________________
पुराणनिर्माणाधिकरणम्
वेद के सभी पक्षों को सभी के समक्ष सावधानी से रखकर जन-जन में वेद पहुँचाओ, यही व्यास का आदेश था तथा यही पूर्णतः स्वीकार कर वे वहाँ से जाते हैं। यह पुराणों में प्रतिपादित व्यास परम्परा से कुछ भिन्न लगता है साथ ही पञ्चवेद चतुर्वेद आदि की व्यवस्था के लक्ष्य की पूर्ति की ओर सङ्केत करता हुआ प्रतीत होता है। विद्वद्गण विचार करें एतदर्थ यह प्राथमिक विचार प्रस्तुत किया गया है।
पुनः पुराणावतार यहाँ विष्णु पुराण के अनुसार भगवान् कृष्ण द्वैपायन व्यास के विशेष दाय को बताते हुए पुराणावतार सीधे सादे रूप में अत्यन्त संक्षेप में कहा गया है।
इस विष्णु पुराण में इस मन्वन्तर के प्रति द्वापर होने वाले २८ व्यासों की एक सूची दी गयी है। इसमें (तृतीय खण्ड, द्वितीय अध्याय में) सभी व्यासों के द्वापर क्रम से नाम हैं। प्रथम व्यास भगवान् स्वयम्भू ब्रह्मा हैं तथा अन्तिम अर्थात् २८वें श्रीकृष्ण द्वैपायन हैं।
इन सभी व्यासों ने अपने कालाधिकार में एक वेद के चार वेद किये हैं जैसा कि इसी अध्याय के निम्नलिखित पद्य में निर्दिष्ट है
एको वेदश्चतुर्धा तु तैः कृतो द्वापरादिषु। ३.३.२०
भविष्ये द्वापरे चापि द्रौणि या॑सो भविष्यति। . व्यतीते मम पुत्रेऽस्मिन् कृष्णद्वैपायने मुने॥ २१ - इन सभी व्यासों ने एक वेद को चार वेदों में विभक्त किया है जब-जब द्वापर का आरम्भ हुआ है। भावी द्वापर में द्रोणाचार्य पुत्र अश्वत्थामा व्यास होंगे जब मेरे पुत्र कृष्ण द्वैपायन का कालकृत व्यासाधिकार निवृत्त हो जाएगा।
जब सभी व्यासों का समान कार्य रहा तो ऐसी स्थिति में वह क्या वैशिष्ट्य है जिससे कृष्ण द्वैपायन की व्यासत्वेन इतनी ख्याति है तथा इनके साथ पुराण बहुत अधिक ऐसा जुड़ गया है जैसे व्यास और पुराण पर्यायवाचक से बन गये हैं। इस प्रकार की जिज्ञासा को लेकर कृष्ण द्वैपायन के पिता भगवान् पराशर प्रमुख रूप से व्यास का पुराण के क्षेत्र में एक ही काम बता रहे हैं और वह है ‘पुराणोद्धार'।
. पुराण के पञ्च लक्षण प्रसिद्ध हैं। इन्हीं को पूर्णतया दृष्टि में रखकर जातूकर्ण्य तक सभी ने पुराण कार्य किया है। उसी का परिणाम है कि स्वायम्भुव से वैवस्वत तक के सात मनुओं के काल में से प्रथम छ: मनुओं के कार्य से हमारा गाढ परिचय नहीं है। अत्यन्त दीर्घकाल की परम्परा में प्रचुर मात्रा में कार्यहोने के कारण। उन छ: मनुओं के समय के प्रमुख प्रमुख कार्यों को थोड़ा-सा बता कर वर्तमान पुराण यही करते हैं कि शेष
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org