________________
पुराणनिर्माणाधिकरणम् ४०० वर्ष में सम्भव है जिसकी उस समय ९० वर्ष की आयु के कृष्ण द्वारा पूर्ति का कथन है। शिष्यों के अध्यापन से इस प्रकार के विभेद उस समय होते गये तो कृष्ण अर्जुन आदि के समय तथा बाद में क्यों नहीं हुए, यह विचारणीय है।
___ महाभारत में एक दूसरा प्रसंग भी है जो वेदाध्येताओं के पञ्चवेद, चतुर्वेद, त्रिवेद, द्विवेद एकवेद भेद का है, सर्वथा वेदाभाव वाले, अनृच् वर्ग के लोगों की भी चर्चा है। धृतराष्ट्र सनत्सुजात से प्रश्न करते हैं कि ये सब अपने-अपने अधिकार का गर्व करते हैं। कृपया कहिये कि इनमें श्रेष्ठ कौन है ? उत्तर में भगवान् सनत्सुजात कहते हैं कि एक वेद के अज्ञान से ये अनेक वेद हुए हैं
एकस्य वेदस्य चाज्ञानाद् वेदास्ते बहवोऽभवन्। उद्यो. प. ३७
प्रकृत सन्दर्भ के अनुसार इसका भाव है कि विभिन्न विषयों के ज्ञानाकर इस एक वेद के न जानने से अनेक वेद खड़े हो गये हैं। इधर समाज में पञ्चवेद चतुर्वेद आदि को देखते हैं तो इसमें एक स्पष्ट व्यवस्थातन्त्र दृष्टि में आता है।
चारों वेदों को पढ़ना-पढ़ाना आर्यों का परम धर्म है। जब इसमें शैथिल्य आया तो वैदिकतन्त्रानुशासित समाज में एक सार्वभौम सार्वकालिक व्यवस्था दी गयी कि अपनी शक्ति, मेधा तथा रुचि के अनुसार वेदाधिकार को लोग लें तथा उसका अनिवार्यतः पालन करें। .
- जो एक वेद के अध्ययन में पूर्णतया प्रवण थे, आज उन्हें यज्ञार्थ विभाजित वेद चतुष्टयी तो दी ही गयी, अर्थ रूप पञ्चम वेद भी दिया गया। इस प्रकार यह प्रथम वर्ग पञ्चवेद अथवा पञ्चवेदी कहलाया। इस प्रकार के सामर्थ्य का जिन में अभाव था, उन्हें स्वेच्छा से कोई तीन वेद चुनने का स्वातन्त्र्य रहा। इस प्रकार वे अधिकार से त्रिवेद हुए, ऐसे ही कई वर्ग द्विवेद के थे। शेष को एक-एक वेद दिया गया। सम्भवतः यहाँ ऋगादि के विभिन्न भेदों में किसी एक को दिया गया हो, यदि ऐसा है तो इस वेद के सहस्रों वर्ग हो सकते हैं।
पञ्चम वेद सबके साथ था, जैसे पुराणवेद, इतिहासवेद, नाट्यवेद, गान्धर्ववेद, धनुर्वेद, आयुर्वेद आदि। अनिवार्यत्वेन अपेक्षित अर्थ की प्राप्ति का, स्वरूप का तथा वृत्ति का वेद यही है अतः सबके लिए अनिवार्य था। जिन्हें वेदाधिकार नहीं दिया गया उन अनृचों (ऋक् वेद, उससे रहित) को भी पञ्चमवेद तो अनिवार्य था ही।
वेदरक्षा की इस व्यवस्था के स्थायित्व के लिए परम्परा की रक्षा के लिए जिन्हें अध्यापन के माध्यम से प्रचार-प्रसार का विशेषाधिकार दिया गया वे इस वृत्त के व्यास
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org