________________
३४
पुराणनिर्माणाधिकरणम् दूर हो गया।
ओझाजी को यह सबकुछ ठीक नहीं लगा, यह विषय भी श्रीमद्भागवत पुराण से भिन्न किसी भी अन्य पुराण में न होने से भागवत का ही है यह भी सिद्ध है। सम्भवतः ओझाजी भागवत का नाम लेकर कुछ कहना नहीं चाहते थे भागवत के लोकविश्रुत स्वरूप के कारण तथा स्वयं की भी उसके प्रति श्रद्धा के कारण।
वेद की अनेक शाखाओं की भाँति पुराणों की भी अनेक शाखाएँ हुई जैसी बात कहते समय जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं, उससे इनकी श्रद्धा प्रकट होती है : उनका लेख है
तदित्थं वेदव्यासकृतानां होत्रुद्गात्रध्वर्य्यथर्वणिक कर्मानुरोधिनीनां चतसृणां याज्ञिककर्म-संहितानां पैल-जैमिनि-वैशम्पायन-सुमन्त्वात्मक शिष्य-प्रशिष्य-प्रणाली-भेदेन यथा काले कालेऽनेकाःशाखाः समभूवन् तथैव वेदव्यासकृतायाः स्त्रीशूद्र द्विजबन्ध्वादि सामान्यविधेयानुरोधिन्या एकस्याः पुराणसंहिताया अपि लोमहर्षणात्मक-शिष्य-प्रशिष्यप्रणालीभेदेन संहिता-चतुष्टयी द्वारा क्रमशः इदानीं प्रतिष्ठितानि अष्टादश निबन्धजातानि विभिन्नाकाराणि प्रासिद्धयन्त।
पुराणावतरण का यही मत वेदपुराणादिशास्त्रावतार में क्रमश: वेदशाखोत्पत्ति के बाद 'अथ पुराणावतार' द्वारा बताते हैं तथा इसे सिद्धान्त रूप में स्थापित करते हैं। ऐसे विचार व्यूह में भी उन्हें भागवत का 'स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुति-गोचरा' अनुकरणीय प्रिय सूक्ति की भाँति लगता है जो पुराणसंहिता के विशेषण के रूप में जड़ा गया है। वेदों का वेद पञ्चम वेद इस रूप में कभी प्रवृत्त नहीं हुआ, यह शतप्रतिशत तथ्य है। वेद अद्धातिजनवेद्यविषय के ज्ञाता पुराणवित् की प्रशंसा करता है। यही कारण है कि ओझाजी वेद के प्रमुख चार विषयों में इतिहास को लेते हैं—१. जगद्गुरु वैभव २. पुराण प्रसंग में वे पुराणविद्या को १. त्रैलोक्यविश्वविद्या, २. ज्योतिश्चक्र, ३. भुवनकोश, ४. प्रासङ्गिक तथा ५. वंशावलि रूप में विभाजित करते हैं ‘सा सृष्टिविद्येह पुराण-संज्ञया ख्याता' की घोषणा के साथ। निश्चित ही पुराण के विनेय सामान्यबुद्धिजन्य नहीं हो सकते हैं।
उनकी इस ग्रन्थ विशेष के प्रति विद्यमान श्रद्धा यद्यपि सीधा नाम नहीं लेने देती है तथा शास्त्रश्रद्धा पुराणावतरण के इस गड़बड़ प्रतिपादन को सह भी नहीं सकती है अतः वे श्रीधर स्वामी की असव्याख्या के नाम पर विषय उठा भी देते हैं साथ ही चाहते भी हैं—अत्रत्यं तत्त्वं पुराणान्तरवचनान्वेषणया निश्चिन्वन्तु विपश्चितः।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org