Book Title: Puran Nirmanadhikaranam
Author(s): Madhusudan Oza, Chailsinh Rathod
Publisher: Jay Narayan Vyas Vishwavidyalay

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Page 20
________________ १४ पुराणनिर्माणाधिकरणम् यत्र स्कम्भः प्रजनयन् पुराणं व्यवर्तयत्। एक तदङ्गं स्कम्भस्य पुराणमनुसंविदुः॥ १०.७.२६ विश्व-प्रजनन क्रिया में प्रवृत्त स्कम्भ ने पुराण का विवर्तन किया। विज्ञजन स्कम्भ के उस अर्थात् प्रजनन से सम्बद्ध एक अङ्ग को 'पुराण' रूप में जानते हैं गहरी अनुभूति के साथ। पुराणोत्पत्ति प्रसङ्ग के ये दोनों रूप यहाँ अभीष्ट हैं। इस प्रसङ्ग का उत्तर भाग यह 'पुराणनिर्माणाधिकरण' है। उसके आरम्भ में भी ऐसा ही एक कथन शीर्षक रूप में है अथपुराणसमीक्षायां पुराणसाहित्याधिकारः पुराणनिर्माणाधिकरणम् . वेद के इतिहास रूप महाविषय की पुराणसमीक्षा भूमि में जब तत्त्व तथा तत्त्वबोधकशास्त्र रूप पुराणद्वय की उत्पत्ति का दर्शन कर लेते हैं तो शास्त्र को वाचिक रूप देना आवश्यक हो जाता है चिरकालिकता की व्याप्ति वाले ग्रथन के माध्यम से। ग्रथन 'पुराणसाहित्य' है। उसका अधिकार है अर्थात् प्रतिपादन की प्रक्रिया पूर्णतः साहित्य तक नियमित रहेगी। उसमें भी 'पुराण-निर्माण' अधिकार मात्र है यह। आज हमारे समक्ष जो विपुल ग्रन्थ राशि है, उसका निर्माण कैसे हुआ, उसमें सङ्गति, असङ्गति, विसङ्गति क्या और क्यों हैं, उनकी समाधान रूप व्याख्या क्या है आदि विभिन्न विषयों का यहाँ विचार है। इसके पूर्व के प्रसङ्ग यहाँ नहीं दोहराये गये हैं अतः इसमें प्रवेश ही बड़ा अटपटा लगेगा जब प्रथम वाक्य ही हमारी चिरकालिक. मान्यताओं पर आघात सा करता प्रतीत होगा जो मन्त्र और ब्राह्मण के पूर्व अथवा साथपुराण की सत्ता की बात करता है। वह प्रथम वाक्य यह है अथैतत् कतिपय मन्त्र-ब्राह्मण-ग्रन्थाविर्भावकालादपि पूर्वं तत्समकालमेव वा आसीदेको ‘ब्रह्माण्डपुराणाख्यो वेदविशेषः सृष्टि-प्रतिसृष्टि निरूपणात्मा' 'इदं वा अग्रे नैव किञ्चिदासीद्' इत्यादिनोपक्रान्तः इति विज्ञायते। इस 'विज्ञायते' की व्याख्या परवर्ती वाक्यद्वय से की गयी है तत्परतयैव च 'ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोका सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि'-इति शतपथ ब्राह्मणादिवचनान्तर्गत पुराणपदमुपनीयते। तस्य च पुरावृत्तपरम्पराख्यानात्मकतया ब्रह्माण्डसृष्टिविचारात्मकतया च ब्रह्माण्डपुराणसंज्ञा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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