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पुराणनिर्माणाधिकरणम् यह सबकुछ ओझाजी की कल्पना प्रसूत भावाभिव्यंजना नहीं है। पुराणादि शास्त्रों में सर्वत्र ऐसे तथ्य प्रकट किये गये हैं। उदाहरण रूप में कुछ वाक्य प्रस्तुत हैं
अतश्च संक्षेपमिमं शृणुध्वं महेश्वरः सर्वमिदं पुराणम्। स संर्गकाले च करोति सर्ग संहारकाले पुनराददीत॥ वायु पु. १/२०५
यहाँ ‘महेश्वरः सर्वमिदं पुराणम्' से स्पष्ट है कि महेश्वर यह सम्पूर्ण पुराण है अर्थात् प्रत्यक्षतः दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् है, यह पुराणग्रन्थ आदि से अन्त तक उस महासत्ता को ही इस सम्पूर्ण पुराण द्वारा कह रहा है।
ऐसे ही भाव शान्तिपर्व में भी व्यक्त हैंसांख्यं च योगं च सनातने द्वे वेदाश्च सर्वे निखिलेन राजन् ! सर्वैः समस्तै ऋषिभि निरुक्तो नारायणो विश्वमिदं पुराणम्॥ ३४९/७३
राजन् जनमेजय! सभी पूरे के पूरे ऋषियों ने निश्चयपूर्वक जिनके विषय में कहा है वे नारायण ही सांख्य और योग रूप सनातन भाव हैं वे ही निखिल वेद हैं और वे ही यह सम्पूर्ण विश्व हैं।
वायुपुराण का उपर्युल्लिखित पद्य भी शा.प. में हैएतन्मयोक्तं नरदेव तत्त्वं नारायणो विश्वमिदं पुराणम्। स सर्गकाले च करोति सर्ग संहारकाले च तदत्तिभूयः॥ ३०१/११५ पितामह भीष्म युधिष्ठिर को कह रहे हैं
नर देव! मैंने तुम्हें यह तत्त्व कहा है कि नारायण ही यह सम्पूर्ण विश्व है। वही सर्गकाल में इसे सर्ग रूप में प्रस्तुत करता है तथा संहार काल में पुनः अपने में समा लेता है। .
यही ब्रह्मसूत्र का ‘अत्ता चराचरग्रहणात्' है : चराचर को आत्मक्षात् कर लेने से अत्ता खाने वाला है। पुराण से ही पुराण का बोध है, इस भाव को शा.प. के ही ये पद्य प्रकट कर रहे हैं
मही महीजाः पवनोऽन्तरिक्षं
जलौकसश्चापि जलं दिवं च। दिवौकसश्चापि यतः प्रसूता
स्तदुच्यतां मे भगवन् ‘पुराणम् ॥ २०१/६ देवगुरु बृहस्पति भगवान् मनु को कहते हैं कि भगवन् मुझे उस पुराण का स्वरूप बताइये कि जिससे भूमि, भौम पदार्थ, वायु, अन्तरिक्ष, जलजजीव, जीव, जल, द्यौ तथा धुलोक के सत्त्वों की उत्पत्ति हुई है।
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