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श्रीपरमात्मने नमः
प्रधान सम्पादकीय
ॐ हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥
वेदविद्यानिधान समीक्षाचक्रवर्ती विद्यावाचस्पति पण्डित मधुसूदन ओझा विरचित 'पुराणनिर्माणाधिकरणम्' नामक यह ग्रन्थ 'पण्डित मधुसूदन ओझा - ग्रन्थमाला' के षोडश पुष्परूप में माधुसूदनी विद्या - विवेचन में विचक्षण पुराणप्रिय पुराणसमीक्षक पण्डितवर्य श्रीमदनन्तशर्मा के सम्पादकत्व में अतिवैदुष्यविलसित - विस्तृत सम्पादकीय के साथ विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत है ।
वेदविद्यावारिधि गीर्वाणवाणीविशारद पण्डितमधुसूदन ओझा एवं उनके अनन्य शिष्य वेदविद्यासमुद्धारक वेदवाचस्पति पण्डित मोतीलाल शास्त्री ने इतिहास एवं पुराण को अपने विज्ञानभाष्य में अत्यधिक महत्त्व दिया है तथा पुराणों के आख्यानों, उपाख्यानों तथा गाथाओं को वेदों से भी प्राचीन माना है। यहाँ तक कि इनके मत में 'इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्' की घोषणा करने वाले भगवान् बादरायण किस वेद का इतिहास-पुराण से उपबृंहण करने की ओर सङ्केत कर रहे हैं- “हमारी स्वल्पमति के अनुसार 'वेदम्' से मुख्यरूपेण वेद का आधिदैविक सृष्टिविज्ञान - व्याख्यारूप ब्राह्मण भाग ही अभिप्रेत होना चाहिए" क्योंकि
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पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः ॥
(शतपथ ब्राह्मण - हिन्दी - विज्ञानभाष्य, प्रथम खण्ड, भूमिका, पृ. ८७)
अर्थात् पुराण ब्रह्मा के मुख से पहले निकले अनन्तर वेद निकले। पण्डित मोतीलालजी शास्त्री तुमुल घोषणा करते हैं कि पुराणशास्त्र के पारिभाषिक स्वाध्याय के बिना ब्राह्मणसाहित्य का पारिभाषिक तत्त्वार्थबोध सर्वथा असम्भव है। किन्तु पुराणोक्त आख्यानों- उपाख्यानों से सम्बन्ध रखने वाले विचित्र एवं असंभव प्रतीत होने वाले कथनोपकथनों से युक्त परिभाषाओं का समन्वय केवल पुराणवाचन से सम्भव नहीं है, अपितु हमें बुद्धि के चिन्तनधर्म एवं मति के
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