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प्रायश्चित्त-समुच्चय । निर्विकृति आहारके करनेसे भी उपवास प्राधा हो रह जाता है। छेदपिंड और छेदशास्त्र में भी ऐसा हो कहा है। यथाआयंबिलम्हि पादूण खमण पुरिमंडले तहा पादो! एयहाणे अद्धं निन्नियंडीओ य एमेव ॥ . . ___ इसका अर्थ ऊपर आ गया है ॥१२॥ अष्टोत्तरशतं पूर्ण यो जपेदपराजितं । मनोवाकायगुप्तः सन् प्रोषधफलमश्नुते ॥ १३ ॥ ___ अर्थ-जो पुरुष मनोगप्ति, वचनप्ति और कायगुप्तिको धारण कर अपराजित पवनमस्कार मंत्रको परिपूर्ण एक सौ आठ वार जपता है वह एक उपवासके फलको पाता है ।। १३ ।। षोडशाक्षरविद्यायां स्यात्तदेव शतद्वये।। त्रिशयां षड्वर्णेषु चतसृध्वपि चतुःशते ॥१४॥ .. अर्थ-सोलह अत्तर वाले मन्त्रको दो सौ जाप देने पर भी एक उपवासका फल होता है। तथा छह अक्षरवाले मंत्रको तीन सौ और चार अक्षर वाले मंत्रकी चार सौ जाप देन पर भो
१। आचाम्स पादानं समां. पुरुमंडल तथा पान:: . एकस्याने ध निर्विकृतोच एकमेव ॥.. २॥ प्रोडशातरविद्यायाः फलं ते शतद्वये! : . . , पड्वर्णविशते क्षान्तेश्चतुर्वर्णचतु:शते ॥ १॥