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पण्डितरत्न श्री हेमचन्द्र जी महाराज की
संक्षिप्त जीवन-झांकी
परमश्रद्धेय आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज की शिष्यमाला के उज्ज्वलतम साधुरत्न पण्डित श्री हेमचन्द्र जी महाराज अपनी मौन अध्यात्मसाधना की भास्कर किरणों से सदा आलोकित रहे हैं और रहेंगे। इनका निस्पृह रागद्वेष-विमुक्त सहज साधना सम्पन्न साधु-जीवन साधुसमाज में दिव्य आदर्श है ।
लुधियाना से लगभग बीस मील दूर दक्षिणपूर्व में मलेरकोटला और लुधियाना की मध्यभूमि पर 'रामगढ़ सरदारां' एक समृद्ध कसवा है, जिसमें लगभग बीस जैन परिवार रहते हैं । इसी ग्राम के निवासी लाला रोनकराम जी के घर में उस - दिन रौनक लग गई थी, जिस दिन हेम - भास्वर एक पुत्र ने जन्म लिया था। माता रत्नीदेवी ने पांच पुत्रियों और दो पुत्रों से पूर्व प्रथम सन्तान के रूप में इस पुत्र रत्न को पाकर अपनी सन्तानकामना पूर्ण की। विक्रम सम्बत् १९५८ का पौष मास तो बाह्य जगत् को शीतल बना रहा था, परन्तु माता-पिता के अन्तर को दिव्य शीतलता प्रदान की इस पुत्र रत्न ने । धर्म-विवेकसम्पन्न - हृदय दादा चूहड़मल ने इस पौत्र का नाम रखा 'हंसराज'। हो सकता है, उनकी अन्तरात्मा ने जान लिया हो कि यह बालक भविष्य में नीरक्षीरविवेकी 'हंस' तुल्य जीवन की साधना करेगा ।
हंसराज ने जीवन के छह अबोध वसन्त माता-पिता एवं बहन भाइयों के प्यार की सुखद छाया में व्यतीत किए और अब सरस्वती की कृपा प्राप्त करने के लिए वह स्कूल में प्रविष्ट हुआ । आठवीं कक्षा तक निरन्तर अध्ययन की परम्परा चलती रही, सर्वत्र प्रथम श्रेणी का आश्रय लेकर ।
सम्बत् १९७५ में श्रमण संघ के प्रथम आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के ओजस्वी शिष्य आध्यात्मिक क्रान्ति के स्रष्टा श्री खजानचन्द जी महाराज 'रामगढ़ सरदारां' पधारे। उनके प्रवचनामृत का पान करने वाले श्रोताओं में 'हंसराज' प्रथम