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प्राकृत भारती
से लेकर वर्तमान युग तक प्राकृत में कथायें लिखी जाती रही हैं । अतः यह साहित्य पर्याप्त समृद्ध है ।
प्राकृत कथाओं का प्रारम्भ आगम साहित्य में हुआ है, जहाँ संक्षिप्त रूप में कथा का ढाँचा प्राप्त होता है । उसके बाद आगम के व्याख्या साहित्य में इन कथाओं की घटनाओं और वर्णनों से पुष्ट किया गया है । ऐसी हजारों कथायें इस साहित्य में प्राप्त हैं । कथा-प्रधान कुछ आगम ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है
(क) आगम कथा-ग्रन्थ :
ज्ञाताधर्मकथा - आगम ग्रन्थों में कथा-तत्त्व के अध्ययन की दृष्टि से ज्ञाताधर्मकथा में पर्याप्त सामग्री है । इसमें विभिन्न दृष्टान्त एवं धर्मकथाएँ हैं, जिनके माध्यम से जैन तत्त्व-दर्शन को सहज रूप में जन-मानस तक पहुँचाया गया है । ज्ञाताधर्मकथा आगमिक कथाओं का प्रतिनिधि ग्रन्थ है | इसमें कथाओं की विविधता है और प्रौढ़ता भी । मेघकुमार, थावच्चापुत्र मल्ली तथा द्रोपदी की कथायें ऐतिहासिक वातावरण प्रस्तुत करती है । प्रतिबुद्धराजा, अर्हन्नक व्यापारी, राजा रूक्मी, स्वर्णकार की कथा चित्रकार कथा चोखा परिव्राजिका आदि कथायें मल्ली की कथा की अवान्तर कथायें हैं । मूलकथा के साथ अवान्तर कथा की परम्परा की जानकारी के लिए ज्ञाताधर्मकथा आधारभूत स्रोत है । ये कथायें कल्पनाप्रधान एवं सोद्देश्य हैं। इसी तरह जिनपाल एवं जिनरक्षित की कथा, तेलीपुत्र, सुषमा की कथा एवं पुण्डरीक कथा कल्पना प्रधान कथायें हैं ।
ज्ञाताधर्मकथा में दृष्टान्त और रूपक कथायें भी हैं । मयूरों के अण्डों के दृष्टान्त से श्रद्धा और संशय के फल को प्रकट किया गया है । दो कछुओं के उदाहरण से संयमी और असंयमी साधक के परिणामों को उपस्थित किया गया है । तुम्बे के दृष्टान्त से कर्मवाद को स्पष्ट किया गया है । चन्द्रमा के उदाहरण से आत्मा की ज्योति की स्थिति स्पष्ट की गयी है । दावद्रव नामक वृक्ष के उदाहरण द्वारा आराधक और विराधक के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । ये दृष्टान्त कथायें परवर्ती तथा साहित्य के लिए. प्रेरणा प्रदान करती हैं ।
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इस ग्रंथ में कुछ रूपक कथायें भी हैं । दूसरे अध्ययन की कथा धन्नासार्थवाह एवं विजय चोर की कथा है। यह आत्मा और शरीर के सम्बन्ध का रूपक है। सातवें अध्ययन की रोहिणी कथा पाँच व्रतों की रक्षा और वृद्धि को रूपक द्वारा प्रस्तुत करती है । उदकजात नामक कथा संक्षिप्त है ।
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