Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ "हाँ, वहीं करूँगी। आपसे छिपाने जैसी कोई बात मेरे मन में नहीं है।" "बम्मलदेवी के बारे में तुम्हारी क्या राय है, पर अप से फई। "विश्वासपात्र हैं: निष्ठावती हैं; राष्ट्र के लिए कुछ भी त्याग करने को तैयार हैं।" "राष्ट्र के लिए या महाराज के लिए?" शान्तला को लगा मानो यह उनकी इच्छा के विरुद्ध है। उन्होंने आश्चर्य से चकित हो एक बार "हाँ!" कहा। बाद में उन्हें उनका यह काम अच्छा न लगा। यत्न कर हँसने की चेष्टा करती हुई बोली, "महाराज राष्ट्र के प्रतीक ही तो हैं।" "इससे कोई इनकार नहीं करता। परन्तु बम्मलदेवी राजघसने की हैं। वह स्थानच्युत होकर आश्रय पाने आयी हैं। यह इच्छा स्वाभाविक है कि वे फिर से अपने खोये हुए स्थान को प्राप्त करें; इसलिए उनकी उस निष्ठा में, तुम समझती हो कि स्वार्थ निहित नहीं है?" "मैंने इस दृष्टि से सोचा ही नहीं।" "मैं विश्वास नहीं कर सकती। अम्माजी, हम आँखें मूंदे रहे तो दुनिया आँख मूंदकर नहीं बैठी रहती। मेरे मन में अचानक बहुत पहले ही एक विचार आया था। वह क्यों और किस कारण था अब याद नहीं। इसीलिए युद्ध में जाने का निर्णय करने से पूर्व मैं तुमसे बात करना चाहती थी। निर्णय हो चुका था। युद्ध के समय आगे कदम बढ़ानेवाले को कभी रोकना नहीं चाहिए-यह बात प्रभु ने मुझे समझायी थी, इसलिए मैं चुप रह गयी।" "तो आपकी इच्छा यही रही कि मैं युद्ध में न जाऊँ!" "प्रकारान्तर से यही होना चाहिए था।" "मतलब?" "बम्मलदेवी का युद्ध में जाना रुकना चाहिए था।" "उनके जाने से मेरा सौमांगल्य बच रहा।" "सचमुच तुम इतना अन्धा हा, अम्माजी? खुद मागल्य सूत्र बंधवाने के इरादे से उन्होंने तुम्हारे सौर्मागल्य को बचाया। "न, न, मैं युद्धभूमि में साथ ही रही न? ऐसी आकांक्षा होती तो मुझे खत्म करके ही अपना रास्ता सुगम बना सकती थीं न?" "कुछ भी हो, मेरे मन में जो बात रही, उसे मैंने तुमसे कह दिया है। किसी पर विश्वास नहीं कर सकते। राजलदेवी की बातों से मेरे मन की शंका और बढ़ गयी। मेरा जमाना तो समाप्त है। जो भी हो, मुझ पर उसका कोई असर नहीं होगा। परन्तु तुम्हारा जीवन कण्टकाकीर्ण बने-ऐसा काम नहीं होना चाहिए। इससे मेरा मन बहुत दुःखी हुआ है।" 16 :: पट्टमहादेवी प्रान्तली : भाग तीन

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