Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रतापना।
है ठीक उसी प्रकार तथागत बुद्धने मी आत्माके विषयमें उपनिषदोंसे बिल्कुल उलटी राह लेकर मी उसे अव्याकृत माना है। जैसे उपनिषदोंमें परम तत्वको अवकव्य मानते हुए भी अनेक प्रकारसे आत्माका वर्णन हुआ है और वह व्यावहारिक माना गया है उसी प्रकार भ० बुद्धने मी कहा है कि लोकसंडा, लोकनिरुक्ति, लोकन्यवहार, लोकप्रज्ञप्तिका आश्रय करके कहा जा सकता है कि "मैं पहले था, 'नहीं था' ऐसा नहीं, मैं भविष्यमें होऊँगा, 'नहीं होऊँगा' ऐसा नहीं, मैं अब हूँ, 'नहीं हूँ ऐसा नहीं ।" तथागत ऐसी भाषाका व्यवहार करते हैं किन्तु इसमें फँसते नहीं। (३) जैनतस्वविचारकी प्राचीनता
इतनी वैदिक और बौद्ध दार्शनिक पूर्व भूमिकाके आधार पर जैन दर्शनकी आगमवर्णित भूमिका विषयमें विचार किया जाय तो उचित ही होगा। जैन आगमोंमें जो तस्व-विचार है वह तत्कालीन दार्शनिक विचारकी भूमिकासे सर्वथा अछूता रहा होगा इस बातका भखीकार करते हुए भी जैन अनुभुतिके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि जैन आगमवर्णित तत्वविचारका मूल भगवान् महावीरके समयसे मी पुराना है । जैन अनुभुतिके अनुसार भगवान् महावीरने किसी नये तत्वदर्शनका प्रचार नही किया है किन्तु उनसे २५० वर्ष पहले होने वाले तीर्थकर पार्श्वनाथके तत्वविचारका ही प्रचार किया है । पार्थनाथसम्मत आचारमें तो भगवान् महावीरने कुछ परिवर्तन किया है जिसकी साक्षी स्वयं भागम दे रहे हैं किन्तु पार्श्वनाथके तत्त्वज्ञानसे उनका कोई मतमेद जैन अनुश्रुतिमें बताया गया नहीं है । इससे हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि जैन तस्वविचारके मूल तत्व पार्थनाथ जितने तो पुराने अवश्य हैं। ___ जैन अनुभुति तो इससे मी आगे जाती है । उसके अनुसार अपने से पहले हुए श्रीकृष्ण के समकालीन तीर्थकर अरिष्टनेमिकी परंपरा को ही पार्श्वनाथने ग्रहण किया था और खयं अरिष्टनेमिने प्रागैतिहासिक काल में होनेवाले नमिनाय से । इस प्रकार वह अनुभुति हमें ऋषभदेव, जो कि भरतचक्रवर्ती के पिता थे, तक पहुँचा देती है। उसके अनुसार तो वर्तमान वेदसे लेकर उपनिषद् पर्यन्त संपूर्ण साहित्य का मूलस्रोत ऋषभदेवप्रणीत जैन तत्त्वविचारमें ही है।
इस जैन अनुश्रुति के प्रामाण्य को ऐतिहासिक-दृष्टिसे सिद्ध करना संभव नहीं है तो मी अनुश्रुतिप्रतिपादित जैन विचार की प्राचीनता में संदेह को कोई स्थान नहीं है । जैन तत्त्वविचार की खतंत्रता इसीसे सिद्ध है कि जब उपनिषदोंमें अन्य दर्शनशास्त्रके बीज मिलते हैं
जैन तत्त्वविचारके बीज नहीं मिलते । इतना ही नहीं किन्तु भगवान महावीरप्रतिपादित भागमोंमें जो कर्मविचार की व्यवस्था है, मार्गणा और गुणस्थान सम्बन्धी जो विचार है, जीवों की गति और आगति का जो विचार है, लोककी व्यवस्था और रचना का जो विचार है, जड़ परमाणु पुद्गलोंकी वर्गणा और पुद्गल स्कन्धका जो व्यवस्थित विचार है, षड्दव्य और
"हमव्यवहार्यमग्राममलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसार प्रपनोपशमं शान्तं शिवरतं चतुर्थ मन्यन्ते स मात्मा स विशेयः।"-माण्ड०६.७ । "स एष नेति नेति हत्यारमाऽगृझो नहि गृह्यते।"-हदा० ४.५.१५ । इत्यादि Construe. p. 219 । २वीपनिकाय-पोट्टपावसुत्त।
न्या. प्रस्तावना २
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