Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
(क) सन्त शब्द का अर्थ या लक्षण "सन्त" शब्द हिन्दी आलोचना का एक पारिभाषिक रूढ़ शब्द है । हिन्दी आलोचना में यह शब्द निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने वाले, नीची जातियों में उस्म होने वाले माति-पाँति, भालून एनं बाहाडम्बरों का विद्रोह करने वाले कबीर, रैदास, दाद, नानक, दरिया आदि के लिये प्रयुक्त होता है। प्रारम्भ में कवीर आदि को संत कहने में लोग हिचकते थे, इसीलिये आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' और डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने संत के साथ निर्गण विशेषण का प्रयोग निरन्तर किया है; परन्तु वर्तमान में यह शब्द कबीर आदि निर्गणोपासकों के लिये रूढ़ एवं प्रचलित हो गया। इस प्रकार यह शब्द एकाएक अपनी समस्त पूर्ववर्ती उदात्त परम्परा से विच्छिन्न होकर नितान्त संकुचित, रूढ़ एवं साम्प्रदायिक अर्थ सीमा में बँध गया है । जबकि उदात्त अर्थ में यही शब्द ऋग्वेद से लेकर ईसा की बीसवीं शती तक निर्विवाद रूप से सदसद्विवेकशील, वैरागी, निर्लिप्त, मायातीत या मोह राग द्वेष रहित महापुरुष के अर्थ में प्रयुक्त होता आया है।
संकुचित अर्थ को रूढ़ या प्रचलित अर्थ तथा उदात्त अर्थ को सही अर्थ भी कहा जा सकता है। " सन्त " शब्द के सही अर्थ के संदर्भ में ऋग्वेद से लेकर आधुनिक भारतीय आर्ष भाषाओं के साहित्य तक कोई विवाद नहीं रहा
और न ही कोश ग्रंथों में " सन्त " शब्द के अर्थ को लेकर कहीं कोई विवाद मिलता है। सर्वप्रथम “ हिन्दी साहित्य कोश भाग - 1" में इस अर्थान्तर को उजागर किया गया है। परन्तु वर्तमान में हिन्दी आलोचना में “ सन्त "शब्द के रूढ़, प्रचलित या संकुचित अर्थ तथा सही या उदात्त दोनों अर्थों का प्रयोग किया जाता है । इन दोनों अर्थों को ध्यान में रखकर सन्त के लक्षण एवं विशेषताएँ विवेच्य हैं।
सन्त शब्द : सही या उदात्त अर्थ - भारतीय साहित्य में अत्यन्त प्राचीन काल से यह शब्द प्रयुक्त होता आया है। ऋग्वेद, तैत्तिरीय उपनिषद
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास रामचन्द्र शुक्ल 2. निर्गुण सम्प्रदाय डा. पीतांबरदत बड़थ्वाल 3. सुवर्ण विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्वं बहुघा कालयन्ति । ऋग्वेद 10.114.5 "क्रान्तदर्शी
विप्रलोग उस एक व अद्वितीय सत् का ही वर्णन अनेक प्रकार से किया करते हैं।" 4. असदेव स भवति असबहोति चेत् वेद । अस्ति ब्रह्मेति चेत् वेद संतमेनं विदुर्घघाः॥
(ततो विदुरिति) तेतरीय उपनिषद 2,6, 1 (यदि पुरुष "ब्रह्म असत् है" जानता है तो वह स्वयं भी असत् हो जाता है और यदि ऐस जानता है कि “ब्रह्म है" तो ब्रह्मवेत्ता लोग उसे भी सत् समझा करते हैं)