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( ११) एकस्तयो सूविरोजिनेश्वरः ख्यात स्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः ॥ तयोविनेयेन विबुद्धिनाऽप्यलं, वृत्ति कृतेषाऽभयदेवसूरिणा ॥५॥
तयोरेव विनेयानां, तत्पदञ्चाऽन कुर्वताम् ॥ श्रीमतां जिनचंद्राख्य, सत्प्रभूण नियोगतः ॥ ६ ॥ श्रीमज्जिनेश्वराचार्य शिष्याणां गुण शालिनाम् ॥ जिनभद्रमुनीन्द्राणामस्माकं चांघिहिसेविनः ॥७॥ यशश्चन्द्रगणेढ़ साहाय्यात सिद्धि मागता ।। परित्यक्ताऽन्य कृत्यस्य, युक्तायुक्त विवेकिनः ॥ ८॥
शास्त्रार्थ निर्णय सुसौरभ लम्पटस्य, विद्वन्मधुव्रत गणस्य सदैव सेव्याः। श्रीनिवृताख्य कुल सन्नद पद्म कल्प:
श्रीद्रोणसूरिरनवद्य यशः परागः ॥६॥ शोधितवान् वृत्तिमिमां, युक्तो विदुषां महा समूहेन । शास्त्रार्थ निष्कनिकषण, कष पट्टक कल्प बुद्धीनाम ॥१०॥
इस टीका में अभयदेवसूरि अपने को एवं जिनेश्वरसरि को चन्द्रकुल के बताते हैं, और अपनी रची हुई टीका महाविद्वान वादि विजयीता निर्वृत्तिकुल के द्रोणाचार्य (चैत्यवासी) से संशोधित कराई, ऐसा लिखते हैं जिसके प्रत्युपकार में जिनवल्लभसूरि ने 'संघपट्टक' ग्रंथ में चैत्यवासियों को खूब फटकारा है। यहां तक कि उनकी मानी हुई त्रिलोक्य पूजनीय जिनप्रतिमा को मांस की बोटी की उपमा दी है और स्वयं आपने साधारण श्रावक से