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जैनधर्म को जीवित रखने वाला जैनधर्म का शुभचिन्तक समाज था। जिसकी खरतरों ने भरपेट निंदा की है ।
चैत्यवासियों का संक्षिप्त परिचय के पश्चात् अब मैं खरतर मतोत्पत्ति के लिये कहूँगा कि खरतर मत वाले कहते हैं कि वि० सं० १०८० में जिनेश्वरसूरि ने पाटण के राजा दुर्लभ की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर विजय के उपलक्ष में खरतर विरुद प्राप्त किया । यह कहाँ तक ठीक है ? इसके लिये सबसे पहिले तो आप प्रभाविक चरित्र को उठा कर देखिये जिसकों श्राचार्य प्रभाचन्द्रसूरि ने वि० सं० १३३४ में निर्माण किया है उसको सब गच्छों वालों ने प्रमाणिक माना है उसमें श्राचार्य अभयदेवसूरि के प्रबन्ध में जिनेश्वरसूरि के लिये क्या लिखा है ?
ज्ञात्वौचित्यं च सूरित्वे, स्थापितौ गुरुभिश्रतौ । शुद्धवासोहिसौरभ्य, वासं समनुगच्छति ॥ ४२ ॥ जिनेश्वरस्ततः सूरिरपरोबुद्धिसागरः । नामभ्यांविश्रुतौपूज्यैर्विहारेऽनुमतौ तदा ॥ ४३ ॥ ददे शिक्षेति तैः श्रीमत्पत्तने चैत्यसूरिभिः । विघ्नं सुविहितानां स्यात्तत्रावस्थानवारणात् ॥ ४४ ॥ युवाभ्यामपनेतव्यं, शक्त्या बुद्धया च तत्किल । यदिदानींतने काले, नास्ति प्राज्ञोऽभवत्समः || ४५ ॥ अनुशास्ति प्रतीच्छाव, इत्युक्त्वा गूर्जरावनौ । विहरन्तौ शनैः, श्रीमत्पत्तनं प्रापतुमुदा ॥ ४६ ॥
* प्राणों के लिये खरतर मतोपत्ति भाग पहिला पढ़ना जरूरी है ।