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भी उन प्राणों से तो उल्टा यह सिद्ध होता है कि विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक तो किसी की भी यह मान्यता नहीं थी कि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में खरतर विरुद मिला था । हां बाद में यह कल्पना की गई है कि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में खरतर विरुद मिला। अगर ग्यारहवीं शताब्दी में विरुद मिले जिसकी ३० वर्ष तक के साहित्य में गन्ध तक नहीं और ३०० वर्षों के बाद वह गुप्त रहा हुआ विरुद प्रगट हो यह कभी हो ही नहीं सकता है । खैर, खरतरों के दिये हुए प्रमाणों को मैं यहां उद्धत कर देता हूँ कि इन प्रमाणों से जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद मिला सिद्ध होता है या खरतरों की मिथ्या कल्पना साबित होती है लीजिए
- पहला प्रमाण अभयदेवसूरि की टीका का है जिसके लिये मैं प्रथम भाग में श्रीस्थानायांगसूत्र, समवाय गसूत्र, भगवतीसूत्र, और ज्ञाता उपपातिकसूत्र की टीकाओं का प्रमाण दे आया हूँ कि उन्होंने जिनेश्वरसूरि कों चन्द्रकुल का होना लिखा है ।
- वि. सं. ११३९ वर्षे श्री गुणचन्द्रगणि विनिर्मित प्राकृत वीर: चरित्र प्रशस्ति प्रान्ते -
भवजलेहि वीइसंभंत भवियसंताण तारण समत्थो । बोहित्थोव्व महत्थो सिरिजिणेसरो पढमो ॥ ५१ ॥ गुरुराओ धवलाओ सुविहिया' साहुसंती जाया । हिमवंताओ गुगुव्व निग्गया सयलजणपुञ्जा ॥ ५२ ॥
षट् स्थानक प्रकरणम् पृष्ठ १
सं० ११३२, ११४१, ११६९, २११, वर्षेषु क्रमशः जन्म दोक्षा सूरिपदस्वर्गभाजः श्री जिनदत्त सूरयः गणधर सार्द्धशतके -