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( ४२ ) अगर जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद मिला होता तो उन दोनों शाखाओं को खरतरशब्द के लिये एक सरीखा- मान होता जैसे तपागच्छ में विजय और सागर साखा है पर तपागच्छ के लिये दोनों शाखाएँ को एकसा मान है परन्तु रुद्रपाली शाखा वाले खरतर नाम लेने में भी पाप समझते थे। कारण, खरतरशब्द की उत्पत्ति हुई थी जिनदत्तसूरि से, तब रुद्रपाली और खरतरों की खूब कटाकटी चलती थी इत्यादि ।
देखिये रुद्रपाली मत्त में विक्रम को पन्द्रहवीं शताब्दी में एक जयानन्दसूरि हुये जिन्होंने प्राचारदिनकर नामक ग्रन्थ पर टीका रची है जिसमें क्या लिखते हैं:श्रीमज्जिनेश्वरः सूरि जिनेश्वर मतं ततः । शरद्राका शशिस्पष्ट- समुद्र सदृशं व्यधात् ॥ १२ ॥ नवाङ्गवृत्तिकृत् पट्टेऽभयदेव प्रभुर्गुरोः । तस्य स्तम्भनकाधीश माविश्चक्रे समं गुणैः ॥ १३ ॥ श्राद्ध-प्रबोधप्रवण स्तत् पदे जिनवल्लभः । सूर्विल्लभतां भेजे, त्रिदशानां नृणामपि ॥ १४ ॥ ततः श्रीरुद्रपल्लीय-गच्छ संज्ञा लसद्यशाः । नृपशेखरतां भेजे, सूरीन्द्रो जिनशेखरः ॥ १५ ॥
विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में खरतरशब्द खूब प्रचलित हो चुका था । यदि जिनेश्वरसूरि से खरतर शब्दकी उत्पत्ति होतो तो यह जयानन्दसूरि जिनेश्वर के साथ खरतर विरुद को लिखे बिना कभी नहीं रहता।
- उपरोक्त खरतर मत के प्रमाणों से इतना तो मष्ट सिद्ध