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( १५ )
आगे भगवान महावीर के लिये स्वयं शास्त्रकार फरमाते हैं कि:
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णामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइयस्स अणिजिण्णस्स उदणं ।
अर्थात नामगोत्र कर्म को क्षीण न करने से, न वेदने से, न निर्जरा करने से, उदय में आया है अब यह बतलाते हैं कि महावीर ने किस भव में नीच गोत्र उपार्जन किया था ।
मरीचिरपि तच्छ्रुत्वा हर्षोद्रेकात्रिपदीं आस्फोटय नृत्यन्निदं अवोचत् । यतः – “प्रथमो वासुदेवोऽहं, मूकायाँ चक्र वहं । चरमस्तीर्थराजोऽहं ममाहो ! उत्तमं कुलम् ॥ १ ॥ आद्योऽहं वासुदेवानां पिता मे चक्रवर्त्तिनाम् । पितामहो जिनेंद्राणां ममाहो ! उत्तमं कुलम् ॥ २ ॥ इत्थं च मदकरन नीचैगोत्रं बद्धवान् ।
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मरीची ने मद कर के नीच गोत्र उपार्जन किया था । वह उदय में आया । जिस नीच गौत्र उदय को कल्याणक मानना कितनी अनभिज्ञता की बात है । पर जिस जीव के मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का प्रबलोदय हुआ। हो उसको कौन समझा सकता है ? यह तो हुई शास्त्र की बात अब पूर्वाचार्यो के कथन को देखिये ।
खुद वल्लभ ने कहीं पर ऐसा नहीं लिखा है कि मैं अभयदेवसूरि का पट्टधर हूँ । पर पिछले लोग उसको अभयदेवसूरि के पट्टधर होने की मिथ्या कल्पना कर डाली है पर देखिये अभयदेवसूरिने आचार्य हरिभद्रसूरि कृत पंचासक पर टीका रची है उसमें महावीर के
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