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किसी ने वल्लभ को श्राचार्य नहीं बनाया । कारण, एक तो वल्लभ उत्सूत्रवादी था, दूसरे श्रीसंघ ने उसको संघ बाहर भी कर दिया था, तीसरे नहीं था वल्लभ के कोई शिष्य और नहीं था कोई गुरु, चौथे वल्लभ के उत्सूत्र मत में अभी तक दो ही संघ थे, एक तो श्रमण संघ जो एक वल्लभ, दूसरा श्रावक संघ ज चित्तौड़ के चन्द व्यक्ति जो वल्लभ को मानने वाले, इनके अलावा साध्वी या श्राविका कोई नहीं थी । कारण, उस समय का महिला समाज अपने धर्म पर इतना बढ़ था कि कई पुरुष वल्लभ के अनुयायी बनने पर भी उनकी औरतें धर्म से विचलित नहीं हुई पर वल्लभ ने अपने अनुयायी श्रावकों के घरों में क्लेश कुसम्प डलवा कर कुछ औरतों को अपने पक्ष में बनाकर बड़ी मुश्किल से तीन संघ बनाये, पर वल्लभ की मौजूदगी में उसके पास किसी स्त्री पुरुष ने दीक्षा नहीं ली । अतः वल्लभ के दो संघ और बाद में तीन संघ ही रहे ।
जिनवल्लभ को श्राचार्य पद की अभिलाषा तो पहिले से ही थी, फिर देवभद्र का संयोग मिल गया । पर यह समझ में नहीं आता है कि देवभद्राचार्य वल्लभ के धोखे में कैसे श्रागये कि उस ने बल्लभ को चित्तौड़ ले जा कर वि० सं० १९६७ में - चार्य बना दिया; वह भी अभयदेवसूरि का पट्टधर । जिस श्रभयदेवसूरि के स्वर्गवास को उस समय ३२ वर्ष हो गुजरे थे । यही कारण था कि उस समय की जनता वल्लभ को जारगर्भ के सदृश आचार्य कहा करती थी बात भी ठीक थी कि जिस पति के देहान्त के बाद ३२ बर्षों से पुत्र जन्म ले उसको जारगर्भ न कहा जाय तो और क्या कहा जाय ? यही हाल जिनवल्लभ का हुआ ।