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खरतरे 'णमोअरिहन्ताणं' कहते एवं लिखते हैं। नमो और णमो का अर्थ तो एक ही होता है, पर और गच्छवाले करें वैसे खरतर नहीं करते हैं । यह एक उनका हठ ही है ।
... २-स्थापनाचार्य... २-जब श्रावक सामायिकादि धर्म-क्रिया करते हैं तब उस समय पुस्तकादि की स्थापना करते हैं और पंचेदिया की दो गाथा कहकर प्राचार्य के ३६ गुणों की स्थापना करते हैं तब खरतर तीन नवकार कहते हैं। : ३-वर्तमान शासन के आचार्य सौधर्म गणधर हैं और उनकी ही स्थापना की जाती है पर खरतरे स्थापना पंच परमेष्टी की करते हैं । यह गलत है क्योंकि क्रिया गुरु आदेश से की जाती है।
४-आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने स्थापना कुलक में स्थापना. चार्य के लक्षण कहे हैं वह स्वाभाविक स्थापनाजी में ही होते हैं । पर खरतरे चन्दन के स्थापनाजी बना कर रखते हैं ।
३-सामायिक १-सामायिकलेनेके पूर्व क्षेत्रविशुद्धि के लिये श्रावक कोइर्यावही करना शास्त्र में लिखा है पर खरतर क्षेत्र विशुद्धि न करके पहिले सामायिक दंडक उच्चार कर बाद में इर्यावही करते हैं। यदि उनको पूँछा जाय कि सामायिक लेते समय सावद्य योगों का प्रत्याख्यान कर लिया फिर तत्काल ही कौनसा पाप लगा कि जिसकी इर्यावही की जाती है । शायद खरतरमत में सामायिक दंडक उच्चारना भी पाप माना गया हो कि सामायिक दंडक उच्चरते . ही इर्यावही करना पड़े पर उल्टे मत के सब रास्ते ही उल्टे होते हैं।