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मासकल्प का भी निषेध कर दिया । इसमें मुख्य कारण क्षेत्र-ममत्व और जिह्वा की लोलुपता हो है।
१५-उपधान १-शास्त्रकारों ने साधुओं के योगद्वाहन और श्रावकों के उपधान तप का शास्त्रों में प्रतिपादन किया है पर खरतरों ने योगद्वाहन को तो माना है पर उपधान का निषेध कर दिया था फिर भी कृपाचन्द्रसूरि खरतर होते हुये भी अपने पूर्वजों के निषेध किये उपधान करवाये थे।
१६-पूर्वाचार्यों ने आंबिल के लिये लिखा है कि जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट एवं तीन प्रकार के आंबिल होते हैं । अतः श्रांबिल में दो द्रव्य एवं दो से अधिक द्रव्य। भी खा सकते हैं पर खरतरों ने आंविल में दो द्रव्य का ही आग्रह कर रखा है।
१७-जिनवल्लभसूरि कुर्चपुरागच्छ के चैत्यवासी जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे और उन्होंने गुरु को छोड़ अपना विधि मार्ग नामक एक नया मत चलाया था पर खरतर कहते हैं कि जिनवल्लभसूरि अभयदेवसूरि के पट्टधर थे किन्तु यह बात बिल्कुल गलत है। कारण अभयदेवसूरि अपनी विद्यमानता में वर्द्धमान सूरि को अपने पट्टधर बना गये थे। अतः जिनवल्लभ अभयदेव सूरि के पट्टधर नहीं हो सकता है, दूसरा अभयदेवसूरि शुद्ध चन्द्रकुल की परम्परा में थे तब जिनवल्लभसूरि थे कुर्चपुरीया गच्छ के चैत्यवासी साधु था।
मलधारगच्छिय हेमचंद्रसरि के शिष्य चंद्रसरि ने लघुप्रवचन सारोद्धार ग्रन्थ में कहा है कि आंबिल में दो द्रव्य के अलावा और भी ५ कई द्रव्य खा सकते हैं।