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" सं० १९७४ वैशाख शुक्ला ३ सं० न चन्द्र प्रभविव
हेमादें पु० गणाधीश्वर श्रीजिनदत्तसूरिभिः
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'भार्य
प्र० खरतरगच्छे सुविहित
" सं० १९८१ माघ शुक्ल ५ गुरौ प्राग्वट ज्ञातिय सं० दीपचन्द्र भार्य दीपादें पु० अबीरचन्द्र अमीचन्द्र श्री शान्ति नाथ विंव करापितं प्र० खरतर गच्छे सुविहित गणाधीश्वर श्रीजिनदत्तसूरिभिः
“सं० ११६७ जेठ वदी ५ गुरौ स० रेनुलाल भार्य रत्नादें पु० सा० कुनणमल श्रीचन्द्रप्रभ विंव करापित प्र० सुविहित खरतर गच्छेगणाधीश्वर श्रीजिनदत्तसूरिभिः
इनके अलावा जैसलमेर के शिलालेखों में सं० ११४७ के शिलालेख में खरतर गच्छे जिनशेखरसूरि का नाम आता है तथा और भी किसी स्थान पर ऐसी मूर्तियां होगी । अतः इन शिलालेखों से पाया जाता है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्त सूरि से नहीं पर आपके पूर्ववर्ती श्राचार्य जिनेश्वरसूरि से ही
हुई होगी।
उत्तर - ११४७ की मूर्ति एवं शिलालेख के लिये तो मैंने प्रथम भाग में समालोचना कर दी थी कि न तो जैसलमेर में ११४७ वाली मूर्ति है और न १९४७ में जिनशेखरसूरि का अस्तित्व ही था । कारण, खरतरगच्छ की पट्टावली में जिनशेखरसूरि का समय वि० सं० १२०५ का लिखा है । अतः यह