________________
( ३० )
अह अण्णया कयाई, रूहिरं दट्टण जिणहरे रूट्ठो । इत्थीण पच्छितं देइ, जिणपूअ पडिसेहं ॥ ३५ ॥ संघुति भय पलाणो, पट्टणओ उडवाहणारूढ़ो | पत्तो जावलीपुरं, जण कहणे भणाइ विजाए ॥ ३६ ॥
इस प्रकार जिनवल्लभसूरि के 'विधिमार्ग' मत का नाम जिनदत्तसूरि की खर प्रकृति के कारण खरतर हुआ है। फिर भी `उस समय यह खरतर नाम अपमान सूचक होने से किसी ने भी नहीं अपनाया था । हाँ बाद दिन निकल जाने से जिनकुशल सूरि के समय उस अपमानसूचक खरतर शब्द को गच्छ के रूप में परिणित कर दिया । बस उस दिन से यह खर तर शब्द गच्छ के -साथ चिपक गया जैसे लोहे के साथ कीटा चिपक जाता है ।
प्रश्न – यदि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि की खर प्रकृति से हुई होती और यह शब्द अपमान के रूप में होता तथा इस खरतर शब्द से जिनदत्तसूरि सख्त नाराज होता तो जिनदत्तसूरि की कराई हुई प्रतिष्ठावाली मूर्तियों के शिलालेखों में खुद जिनदत्तसूरि अपने को 'खरतरगच्छ सुविहित गणाधीश' क्यों लिखते ? जैसे जैतारन ग्राम में कई मूर्तियां जिनदत्तसूरि की प्रतिष्ठा करवाई हुई आज भी विद्यमान हैं और उन मूर्तियों पर शिलालेख भी खुदे हुये मौजूद हैं। देखिये नमूने के तौर पर कतिपय शिलालेख ।
“सं० १९७१ माघ शुक्ल ५ गुरौ सं० हेमराजभार्यहेमादे पु० सा० रूपचन्द रामचन्द्र श्रीपार्श्वनाथ विंव करापितं अ० खरतर गच्छे सुविहित गणाधीश श्री जिनदत्तसूरिभिः"