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राजा दुर्लभ का पाटण में राज तो क्या पर उसका अस्तित्व भी नहीं था। हाँ इस समय के पूर्व कभी जिनेश्वरसूरि पाटण गए थे। ऐसा प्रभाविकचरित्र और दर्शनसप्ततिका प्रन्थों से पाया जाता है, पर न तो वे राजसभा में गए न किसी चैत्यवासियों के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ और न किसी राजा ने खरतरविरुद ही दिया था । खरतरोंने केवल कँवला और खरतर शब्द के लिये यह कपोलकल्पित कल्पना कर डाली है पर इस इतिहास युग में ऐसी कल्पना कहाँ तक चल सकती है ? आखिर सत्य के सूर्य के सामने ऐसे मिथ्या लेख रूपी अन्धकार को पलायन होना ही पड़ता है जिसको मैंने ठीक तौर से बतला दिया है। ___ अब पाठकों को यह जानने की उत्कंठा अवश्य होगी कि खरत्तर शब्द की उत्पत्ति कब, क्यों और किस पुरुष द्वारा हुई ? इसके लिए मैं खरतरमतोत्पत्ति तीसरे भाग को लिख कर शीघ्र ही आपकी सेवा में उपस्थित करूंगा, जिसके पढने से आपको भली भांति रोशन हो जाएगा कि खरतरमत की उत्पत्ति क्यों और कैसे हुई है ?
इति शुभम्
बाबू दीनदयाल 'दिनेश' द्वारा आदर्श प्रेस, अजमेर में छपी-१०-३९.