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(.४९ ) अर्थात् १०८० में दुर्लभ राजा का राज ही पाटण में नहीं था फिर शास्त्रार्थ किसने किया और खरतर विरुद किसने दिय ? शायद राजा दुर्लभ मर कर भूत हो गया हो और वह दो वर्ष से वापिस आकर जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद दे गया हो ? वरन् खरतरों का लिखना बिल्कुल मिथ्या है और यह बात आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि के लिखे 'अभयदेयसूरि प्रबन्ध' और संघतिलकसूरि के लिखे 'दर्शन सप्ततिका' ग्रन्थों के लेख से स्पष्ट सिद्ध भी हो चुकी है कि जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे, पर न तो वे गजा दुर्लभ की सभा में पधारे न किसी चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ और न राजा दुर्लभ ने जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद ही दिया था। किन्तु खरतर शब्द की उत्पत्ति तो जिनदत्तसूरि की खर-प्रकृति से हुई थी और खरतर शब्द उस समय अपमान के रूप में समझा जाता था। यही कारण है कि कई वर्षों तक इस खरतर शब्द को किसी ने भी नहीं अपनाया। बाद दिन निकलने के जिनकुशलसूरि के समय वह अपमान जनित खरतर-शब्द गच्छ के रूप में पणिरित हो गया । जैसे श्रोसवालों में ढेढ़िया बलाई चंडालियादि जातियां हैं वे नाम उत्पन्न के समय तो अपमान के रूप में समझे जाते थे पर दिन निकलने के बाद वे ही नाम खुद उन जातियों वाले ही लिखने लग गये कि हम ढेढिये, बलाइ चंडालिए हैं । यही हाल खरतरों का हुआ है । ___ अन्त में मैं अपने पाठकों से इतना ही निवेदन करूंगा कि आप सज्जनों ने खरतरमतोत्पत्ति भाग पहिला दूसरा आद्योपान्त पढ़ लिया है जिसमें मैंने प्रायः खरतरमतानुयायियों के पुष्कल प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि वि. सं० १०८० में ..