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पुत्रोऽस्ति, तस्य जनको दिवंगतः, तं जननी प्रतिपालयति, पाठयोग्यश्चासौ प्रक्षिप्तः तयातत्र मठे पठितुंxxx ततस्तं द्राक्षाखर्जू राक्षोटकखण्डमण्डकमोदकादिदानपुरस्सरं वशीकृत्य तन्मातरं मधुरवचनैः संबोधयामास, यदुत एष त्वदीयपुत्रोऽत्यन्तप्राज्ञः मूर्तिमान् सात्त्विकः, किं बहुना ?, आचार्य पदयोग्योऽस्ति, तदेनमस्मभ्यं प्रयच्छ, एषा तावकीना देव कुलिका अन्येषां च निस्तारको भविष्यतीत्यत्रार्थे नान्यथा किंचिद्वक्तव्यमित्यभिधाय द्रम्मशतपंचकं तस्या हस्ते प्रक्षिप्य क्षिप्रं दिदीक्षे, ( गणधर साद्ध शतक)
__ प्र०प० पृष्ठ २३१ अर्थात आसिका दुर्ग में कुर्चपुरागच्छीय जिनेश्वरसूरि चैत्यवासी आचार्य रहता थाउनके उपाश्रय में बहुत से श्रावकों के लड़के पढ़ते थे। उसमें एक वल्लभ लामक लड़का ऐसा भी था कि जिस का पिता तो गुजर गया था और उसकी माता ने लड़के को वहाँ पढ़ने के लिये भेजा थाxxxजिनेश्वरसूरि ने उस बिना बाप के लड़के को दास्ने खजूर मोदक वगैरह से प्रलोभन कर शिष्य बनाने का निश्चय कर लिया। जब उसकी माता ने कुछ कहना सुनना किया तो उसको ५०० द्रव्य मूल्य का देकर उस लड़के को
१ जिनदत्तसूरि का स्वर्गवास वि० सं० १२११ में हुभा जिन्होंने गणधर सार्द्धशतक ग्रन्थ की रचना की और वि० सं० १२२३ में जिनपतिसूरि को सूरि पद मिला और आपके शिष्य सुमति गणि ने गणधर सार्द्धशतक पर वृहद्वृत्ति रची. अतः मूल्यग्रन्थ और वृतिका समय बिल. कुल समीप का समय है।