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को यह स्वप्न में भी ख्याल नहीं थाकि मैं आज इस चैत्यवासी वल्लभ को ज्ञान देता हूँ वह आगे चल कर 'पयपानं भुजंगानां केवलं विष वर्द्धनम्' अर्थात् वल्लभ इस प्रकार उसूत्र की प्ररूपना कर शासन में भेद डाल कर नया मत निकालेगा।
एक समय का जिक्र है कि अभयदेवसरि का अन्त समय नजदीक था उस समय जिनवल्लभ ने सूरि बनने की कोशिश की होगी, परन्तु :
"यतो देवगृहनिवासी शिष्य इति हेतोगच्छस्य सम्मतं न भविष्यतीति ततो गच्छाधारको वर्द्धमानाचार्यः स्वपदे निवेसितः"
___ गणधर सार्ध शतक प्र० प० पृष्ठ २३५ इसमें स्पष्ट लिखा है कि जिनवल्लभ चैत्यवासी आचार्य का शिष्य होने से गच्छ वाले वल्लभ को पदाधिकार देने में सम्मत नहीं होंगे, अतः अभयदेवसूरि ने अपने पट्टधर वर्द्धमानसूरि को आचार्य बना कर स्वर्गवास कर दिया। इसके साथ ही ग्रन्थकर्ता ने यह भी लिखा है कि "जिनवल्लभगणेश्व क्रियोपसंपदं दत्तवन्त"
___ग० सा० शतक" प्र० प० पे० २३५. यह कदापि संभव नहीं होता है कारण यदि अभयदेवसूरि ने वल्लभ को उपसंपद की क्रिया करवादी होती तो गच्छवाले उसको चैत्यवासी का शिष्य कह कर असम्मत कदापि नहीं होते । दूसरे अभयदेवसूरि अपनी चिरायुः में ही वल्लभ को क्रियोपसंपद नहीं करवाई तो अन्त समय तो गच्छवाले जिनवल्लभ से