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बिचारे खरतरों में इतनी अकल ही कहां थी कि हम जिनेश्वर सूरि के लिए खरतर विरुद का कल्पित कलेवर तैयार करते हैं तो पहिले इनके समय का तो ठीक मिलान कर लें कि बाद में हमें शर्मिन्दा हो नीचा तो न देखना पड़े ? देखिये खरतरों के खरतर विरुद समय जैसे किसुविहित नइ मटुपति हुउ, गयं गणि वसिंरा विव्य दूरा। सूरि जिणेसर पामिउ, जग देखत जय जय बादरा ॥ दस सय चउवीस हिं गए उथापिउ चेइय वासुरा । श्रीजिणशासण थापिउ, वसतिहिं सुविहित मुणि वासुरा॥१४॥
ख० ५० ए० ज० का० सं० पृष्ठ ४५ ॥ दस सय चउवीसेहिं नयरि पट्टण अणहिल्लपुरि । हअउवाद सुविहित्थ चेइवासी सुवहु परिं । दुल्लह नरवइ सभा समख्य जिण हेलिहिं जिन्नउ । चेइवास उत्थापि देस गुज्जर हव दिनउ ।। -सुविहित गच्छ खरतर विरुद दुल्लह नरखइ तिहिं दिहइ सिरि वद्धमाण पट्टिहिं तिलउ जिणेसरसूरि गुरु गहगहई ।
_ "खरतर पट्टावली पृष्ठ ४४ ॥" १०२४ वर्षे श्रीमदणहिल्ल पतने दुर्लभ राज समीक्ष इत्यादि
- "प्राचीन खरतर पट्टावली" उपरोक्त प्रमाणों से खरतरों का स्पष्ट मत है कि जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ और खरतर विरुद मिलने का समय वि० सं० १०२४ का था पर यह बात न जाने किस बेहोशी में लिखी गई थी क्योंकि वि० सं०१०२४ में न तो जिनेश्वरसूरि का जन्म हुआ