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शुद्ध चन्द्रकुल की परम्परा में है तब खरतर मत की उत्पति कुर्श्व• पुरागच्छीय जिनवल्लभसूरी के पट्टधर जिनदत्तसूरि से हुई थी ।
उपरोक्त प्रमाणिक प्रमाणों को पढ़ कर पाठकों को यह सवाल 'होना स्वाभाविक ही है कि जब प्राचीन किसी प्रन्थ में जिनेश्वर सूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ एवं खरतर विरुद की जिक्र तक नहीं है तो फिर यह मान्यता किसके द्वारा और किस समय में हुई कि जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थं हुआ और राजा दुर्लभ ने जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद दिया ?
जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ और खरतर विरुद की कल्पना एक ही साथ में नहीं हुई थीं परन्तु पहिले शास्त्रार्थ की कल्पना की गई थी और बाद में खरतर विरुद की । जिसमें शास्त्रार्थ की कल्पना तो सबसे पहिले विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में जिनपतिसूरि ने की थी जैसे कि:
चौलुक्यवंशमुक्तामणिक्यचारु तत्वविचारचातुरी धुरीण विलसदंगरंग नृत्यन्नीत्यंगनाएँ जितजगझन समाज श्रीदुर्लभराज महाराज सभायां । अनल्पजल्पजलधि समुच्छलदतुच्छविकल्पकल्लोलमाला कवलितवहलप्रतिवादिकोविद ग्रामण्यासंविमुनिनिवहाग्रण्या, सुविहितवसतिपथप्रथनरविणा वादिकेसरिणा श्रीजिनेश्वरसूरिणा । श्रुतयुक्तिभिर्वहुधा, चैत्यवासव्यवस्थापनंप्रतिप्रतिक्षिप्तेष्वपि लांपट्याभिनेवेशाभ्यां तन्निर्बंध मजहत्सु यथाच्छंदेषु ।
जिनवल्लभसृरिक्रत संघ पटक पृष्ठ ४