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( ३० ) को ठहरने के लिए स्थान मिला और उन्होंने चैत्यवास और वसतिवास का भेदडाल संघ में फूट के बीज बो ही दिये फिर तो प्राम ग्राम में वसतिवासियों के लिये नये २ मकान बनने शुरू हो गये जैसे ढूंढ़ियों के लिये प्राम प्राम में स्थानक बनवाने का प्रचार हुआ था । ____मनुष्य अभिमान के गज पर सवार हो जाता है, तब वह हिताहित का भान तक भूल जाता है। यही हाल नामधारी सुविहितों का हुआ है। जिनेश्वरसूरि चैत्यवासियों के शिथिल
आचार की पुकार करने को पाटण गये पर वहां आपने स्वयं अपने लिए बनाये हुये मकान में चतुर्मास कर वज्रक्रिया रूपपाप की गठरी शिर पर उठाई । कारण, साधु के लिये बनाये हुये मकान में साधु को पैर रखना भी नहीं कल्पता है। यदि साधु के लिये बनाया हुआ मकान में साधु ठहरे तो आचारांगसूत्र में सावध एष वञक्रिया. दशवैकालिक में आचार से भ्रष्ट तथा निशीथसूत्र में दंड बतलाया है। यह कार्य चैत्यवास का रूपान्तर नहीं तो और क्या है ? खैर यह तो हुई जिनेश्वरसूरि के पाटण जाने की बात जिसका सारांश यह है कि न तो जिनेश्वरसूरि राजसभा में गये न चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ और न राजा ने खरतर विरुद ही दिया। ___ यदि जिनेश्वर सूरि को खरतर विरुद मिला होता तो उनके याद अनेक प्राचार्य हुये और उन्होंने अनेक प्रन्थों का निर्माण भी किया, पर उन्होंने किसी स्थान पर यह नहीं लिखा है कि जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद मिला था । खास अभयदेवसूरि ने अपनी बनाई टीकाओं में जिनेश्वरसूरि को चन्द्रकुल के लिखा है