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( ३१ ) ( देखो खरतरमत्तोत्पत्ति भाग पहिला) आगे चल कर हम जिनवल्लभसूरि के प्रन्थों को देखते हैं कि उन्होंने कहीं पर जिनेश्वरसूरि को खरतर लिखा है या नहीं।
न चकोरोदीयतमलमदोषमत मेनिरस्त सद्वृत्तम् । नालिककृतावकाशोदयमपरं चांद्रमस्तिकुलम् ॥ १ ॥ तस्मिन् बुधोऽभवदसङ्गविहारवर्ती,
सूरिर्जिनेश्वर इति प्रथितोदय श्रीः । श्री वर्द्धमान गुरुदेव मतानुसारी
हारीभवन् हृदि सदा गिरिदेवतायाः ॥२॥ "जिन वल्लभीय प्रशस्त्यपर नाम्न्यमष्ट सप्ततिकायां"
प्र. ५० पृ० २९४ जिनवल्लभसूरि के उपरोक्त लेख में शास्त्रार्थ एवं खरतर विरुद की गंध तक भी नहीं है। यदि जिनवल्लभने चैत्यवासियों के शास्त्रार्थ की विजय में खरतर विरुद मिलना सुन लिया होता तो वह अपने संघ पट्टक जैसे प्रन्थ में एवं जिनेश्वरसूरि के साथ यह बात लिखे बिना कभी नहीं रहता पर क्या करे उसके समय खरतर शब्द का जन्म तक भी नहीं हुआ था। ___ आधुनिक खरतर लोग महाप्रभाविक अभयदेवसूरि को खरतर बनाने का मिथ्या प्रयत्न कर रहे हैं परन्तु अभयदेवसरि के विषय में तो मैंने प्रथम भाग में विस्तार से लिख दिया कि वे खरतर नहीं पर चन्द्रकुल में थे। इतना ही क्यों पर आपकी संतान परम्परा में भी कोई खरतर पैदा नही हुआ था। देखिये खास अभयदेवसूरि के पट्टधर वर्द्धमानसूरि हुये हैं वे क्या लिखते हैं।