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(२८ ) भावार्थ-वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वरसूरि को हुक्म दिया कि तुम पाटण जात्रो कारण पाटण में चैत्यवासियों का जोर है कि वे सुविहितों को पाटण में आने नहीं देते हैं अतः तुम जा कर सुविहितों के लिए पाटण का द्वार खोल दो । वस गुरुआज्ञा स्वीकार कर जिनेश्वरसूरि बुद्धिसागरसूरि क्रमशः विहार कर पाटण पधारे । वहां प्रत्येक घर में याचना करने पर भी उनको ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला उस समय उन्होंने गुरु के बचन को याद किया कि वे ठीक ही कहते थे कि पाटण में चैत्यवासियों का जोर है खैर उस समय पाटण में राजा दुर्लभ का राज था
और उनका राजपुरोहित सामेश्वर ब्राह्मण था। दोनों सूरि चल पुरोहित के वहाँ गये । परिचय होने पर पुरोहित ने कहा कि आप इस नगर में विराजें । इस पर सूरिजी ने कहा कि तुम्हारे नगर में ठहरने को स्थान ही नहीं मिलता फिर हम कहाँ ठहरें ? इस ह लत में पुरोहित ने अपनी चन्द्रशाला खोल दी कि वहाँ जिनेश्वरसूरि ठहर गये। यह बितीकार चैत्यवासियों को मालूम हुआ तो वे (प्र० च० उनके आदमी ) वहाँ जा कर कहा कि तुम नगर से चले जाओ कारण यहां चैत्यगसियों की सम्मति बिना कोई श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकते हैं । इस पर पुरोहित ने कहा कि मैं राजा के पास जा कर इस बात का निर्णय कर लगा। बाद पुरोहित ने राजा के पास जा कर सब हाल कह दिया । उधर से सब चैत्यवासी राजा के पास गये और अपनी सत्ता का इतिहास सुनाया। आखिर राजा के आदेश से वसति प्राप्त कर जिनेश्वरसूरि पाटण में चतुर्मास किया उस समय से सुविहित मुनि पाटण में यथा इच्छा विहार करने लगे।