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( १७ ) ने अनेक प्रकार से उत्सूत्र भाषण कर जैनधर्म को जहाँ तहाँ माका सा बना दिया था।
६-चेत्यवासियों ने अपने समय में जितने जैनेतरों को जैन बनाया था उनके बाद में किसीने भी उतने नहीं बनाये । इतना ही क्यों पर इस प्रकार नये नये मत निकलने से जैनों का पतन ही हुआ था।
. ७-चैत्यवासियों के समय जैनसमाज का जितना धनबल, मनबल एवं संख्याबल था वह बाद में नहीं रहा अर्थात् चैत्यवासियों के अस्त के साथ जैनसमाज का सूर्य भी अस्त होता ही गया। ___ इत्यादि चैत्यवासी युग एक जैनियों का उत्कृष्ट पुन्य वृद्धि. रूप उत्कर्ष का युग था। यह तो मैंने मुख्यता की बात कही है गौणता में कई चैत्यवासी शिथिल भी होंगे और वे अपनी चरम सीमा तक भी पहुँच गये होंगे पर ऐसे व्यक्तियों का दोष सर्व समाज पर नहीं लगाया जाता है फिर भी उत्सत्र प्ररूपकों की बजाय तो वे हजार दजें अच्छे ही थे और इस प्रकार के शिथिलाचारो तो नामधारी सुविहितों में भी कम नहीं थे। उनमें भी समयान्तर पतित एवं परिप्रहधारियों की पुकारें हो रही थीं और कई बार क्रिया-उद्धार करना पड़ा था। इतना ही क्यों पर उनकी मान्यता के खिलाफ भी कई मत पन्थ निकाल कर शासन को अधिक से अधिक नुकसान पहुँचाया था। ___ मेरे उपरोक्त लेख से पाठक समझ गये होंगे कि चैत्यवासी समाज कोई साधारण समाज नहीं पर जैनधर्म का स्तम्भ एवं