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( १५) निन्दा की। प्रमाण के लिये आपका बनाया 'संघपट्टक' नामक 'अन्य विद्यमान है । जिन चैत्यवासियों का बहुमान कर 'प्राचार्य अभयदेवसूरि ने अपनी टीकाओं का संशोधन करवाया था उन्हीं चेत्यवासियों की मानी हुई त्रिलोक पूजनीय तीर्थक्करों की मूर्तियों को मांस के टुकड़ों की उपमा दे डाली। फिर भी कुदरत जिनवल्लभ के अनुकूल नहीं थी। उसने वि० सं० ११६४ आश्विन कृष्ण त्रयोदशी के दिन चित्तौड़ के किल्ले में ठहर कर भगवान महावीर के गर्भापहार नामक छठा कल्याणक की उत्सूत्र प्ररूपना कर डाली जिसप्ते क्या चैत्यवासी और क्या सुविहित अर्थात सकल श्रीसंघ ने जिनवल्लभ को संघ बाहर कर दिया। । ___ इतना होने पर भी चैत्यवासियों का प्रभाव कम नहीं हुआ था पर शासन की प्रभावना करने के कारण समाज उनका आदरमान पूजा सत्कार करता हो रहा । इस विषय में अधिक न लिख कर केवल इतना ही कह देना मैं उचित समझता हूँ कि जैनधर्म के प्रभाविक पुरुषों के लिये वि० सं० १३३४ राजगच्छीय प्रभाचन्द्रसूरि ने एक प्रभाविक चरित्र नामक ग्रन्थ लिखा है जिसमें प्राचार्य वजूस्वामि से लेकर आचार्य हेमनन्द्र
सूरि तक के प्रभाविक प्राचार्यों का जीवन संकलित किया है जिसमें अधिकतर चैत्यवासी आचार्यों को ही प्रभाषिक समझ कर उनका ही प्रभाव बतलाया है जैसे वादीवैताल शान्तिसूरि, महेन्द्रसूरि, द्रोणाचार्य, सूराचार्य, वीराचार्य और हेमचन्द्र सूरि के जीवन लिखे हैं पर नामधारी सुविहित-सुधारक एवं * असंविग्न समुदायेन, सविन, समुदायन संघ वहिष्कृतः
"प्रवचन२४" परीक्षा पृष्ठ