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( २३ ) शिवएवजिनो, बाह्यत्यागात्परपदस्थितः । दर्शनेषुविभेदोहि,चिह्नमिथ्यामतेरिदम् ॥ ८६ ॥ निस्तुषव्रीहिहट्टानांमध्येऽत्र (त्रिप्र०) पुरुषाश्रिता। भूमिः पुरोधसा ग्राह्योपाश्रयाययथारुचि ॥ ८७ ॥ विघ्नः स्वपरपक्षेभ्यो, निषेध्यासकलोमया । द्विजस्तच्चप्रतिश्रुत्य,तदाश्रयमकारयत् ॥ ८८ ॥ ततःप्रभृतिसंजज्ञे,वसतीनांपरम्परा । महद्भिः स्थापितं वृद्धिमश्रुते नात्र संशयः ॥ ८९ ।। श्रीबुद्धिसागरसूरिश्चकेव्याकरणंनवम् । सहस्राष्टकमानंतच्छ्रीबुद्धिसागराभिधम् ॥ ९० ॥ अन्यदाविहरन्तश्च, श्रीजिनेश्वरसूरयः । पुनर्धारापुरीप्रापुः, सपुण्यप्राप्यदर्शनाम् ॥ ९१ ॥
"प्रभाविक चरित्र पृष्ट २७५" भावार्थ-श्राचार्य वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वर व बुद्धिसागर को योग्य समझकर सूरि पद दिया और उनको आज्ञा दी कि पाट्टण में चैत्यवासी प्राचार्य सुविहितों को आने नहीं देते हैं अतः तुम जाकर सुविहितों के ठहरने का द्वार खोल दो । गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि विहार कर क्रमशः पादृण पहुँचे घर घर में याचना करने पर भी उनको ठहरने के लिये उपाश्रय नहीं मिला। उस समय पाटण में राजा दुर्लभ राज करता था और सोमेश्वर नाम का राजपुरोहित भी बहाँ रहता था। दोनों मुनि चलकर उस पुरोहित के यहां आये