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( २५ ) को ही "खरतरविरुद" मिल गया था तो फिर जिनेश्वरसूरि के लिए शास्त्रार्थ की विजय में खरतरविरुद मिला कहना तो स्वयं असत्य साबित होता है । पर यह विषय भी विचारनीय हैं क्योंकि पल्ह कवि कृत खरतर पट्टावली और उनका खुद का समय भी विक्रम की बारहवीं शताब्दी में जिनदत्तसूरि के समकालीन है. और यह कवित्ता भी जिनदत्तसूरि को ही लक्ष्य में रख कर बनाई गई है। फिर भी कवि का हृदय ही संकीर्ण था क्योंकि उसने खरतर की महत्ता बताने को खरतरविरुद का संयोग श्रीउद्योतनसूरि से ही. किया । अच्छा तो यह होता कि कवि श्रीमहावीर प्रभु के पट्टधर सौधर्माचार्य को ही खरतर विरुद से विभूषित कर देता। और ऐसा करने से सारा झगड़ा-बखेड़ा स्वयं मिट जाता और जैनसमाज सब का सब खरतरगच्छ का उपासक ही बन जाता ? वास्तव में तो कविता का आशय जिनदत्तसूरि को ही खरतर कहने का था । यदि ऐसा न होता तो उद्योतनसूरि, वर्धमानसूरि, जिनेश्वशसूरि, बुद्धिसागरसूरि. जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि जिनचन्द्रसूर, और जिनपतिसूरि तक के अनेक ग्रन्थ
और शिलालेख मिलते हैं जिनमें कतिपय का तल्लेख तो हम ऊपर कर आये हैं कि जिनेश्वर के बाद ३०० वर्षो तक तो खरतर शब्द का किसी ने भी उल्ख नहीं किया और एक अप्रसिद्ध अपभ्रंश भाषा के पल्ह नामक कवि ने उद्योतनसूरि को खरतर विरुद्धारक लिख दिया और खरतरों का उस पर यकायक विना सोचे समझे. विश्वास हो जाना यह सभ्य समाज को सन्तोषप्रद नहीं हो सकता। ___कई अज्ञ लोगों का यह भी कथन है कि पाटण के राजा दुर्लभ की राज-सभा में आचार्य जिनेश्वरसरि और चैत्यवासियों