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( २६ ) के बीच शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें 'खरा' रहने वालों को 'खरतर'
और हार जाने वालों को 'कँवला' कहा। और वह खरतर तथा कवला शब्द आज भी मौजूद हैं।
पूर्वोक्त बात कहने वालों का अभिप्राय शायद यह हो कि यह शास्त्रार्थ केवल-उपकेशगच्छ वालों के साथ ही हुआ होगा। कारण कँवला आजकल उपकेशगच्छवालों को ही कहते हैं । इस शास्त्रार्थ के समय पाटण में अनेकाचार्यों के उपाश्रय और वहाँ बहुत आचार्य व साधु रहा करते थे, जिनमें सर्वाऽप्रणी केवल उपकेशगच्छ वालों को ही माना जाता हो और शास्त्रार्थ भी उन्हीं के ही साथ हुआ हो, खैर यदि थोड़ी देर के लिये खरतरों का कहना मान भी लिया जाय कि दुर्लभ राजा की राज सभा में शास्त्रार्थ हुआ और खरा रहने वाले खरतर और हार जाने वाले कवला कहलाये । पर यह बात बुद्धिगम्य तो होनी चाहिये ? कारण दुर्लभ राजा स्वयं बड़ा भारी विद्वान् एवं असाधारण पुरुष था । संस्कृत साहित्य का प्रौढ़ पडिण्त एवं पूर्ण प्रेमी था । और यह शास्त्रार्थ भी विद्वानों का था, फिर जय और पराजय के उपलक्ष्य में विरुद देने को उस समय के कोषों में कोई ऐसा सुन्दर और शुद्ध शब्द नहीं था, जो इन ग्रामीण भाषा के अर्थशून्य असभ्य शब्दों को जय के लिए खरतर, और पराजय के लिये कवला जैसे शब्दों को उपहार स्वरूप में स्थान मिला ? 'परन्तु वस्तुतः देखा जाय तो यह बात ऐसी नहीं है । क्योंकि कुदरत का नियम है कि कोई भी विरुद्ध अर्थवाची प्रतिपक्षी दो शब्द बराबर विरुद्ध अर्थ में ही आते हैं। जैसे उदाहरणार्थ देखिये: