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( २९ ) सूरि और जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्तसूरि से ही हुआ, और यह भी कोई, मान, महत्वा या विरुद और गच्छ के रूप में नहीं, किन्तु खास कर जिनदत्तसूरि के स्वभाव के कारण ही हुआ है। इस विषय में मेरा और भी अभ्यास चालू हैं ज्यों ज्यों मुझे प्रमाण मिलता जायगा त्यों त्यों मैं आप श्रीमानों की सेवा में उपस्थित करता रहूँगा।
अन्त में खरतरगच्छीय विद्वद् समाज से निवेदन करूँगा कि आप इस छोटी सी किताब को आद्योपान्त ध्यानपूर्वक पढ़ें । यदि मेरी ओर से किसी प्रकार की भूल हुई हो तो आप सप्रमाण सूचना करें कि उसका मैं द्वितीयावृत्ति में ठीक सुधार करवा दूं। यदि इसके उत्तर में कोई सज्जन किताब लिखना चाहें तो भी कोई हर्ज नहीं है क्योंकि ऐसे विषय की ज्यों ज्यों अधिक चर्चा की जाय त्यों त्यों इसमें विशेष तथ्य प्राप्त होता जायगा और आखिर सत्य अपना प्रकाश किये बिना कदापि नहीं रहेगा, पर साथ में यह बात भी लक्ष्य बाहर न रहे कि आज जमाना सभ्यता का है, विद्वद् समाज में प्रमाणों का प्रेम है सभ्यता एवं सत्यता की ही कीमत है । अतः लेख सभ्यतापूर्वक ही लिखना चाहिये इत्यालम् ।
इति खरतर-मत्तोत्पात्त भाग पहिला
समाप्तम्