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कई ग्रन्थों में यह भी लिखा मिलता है कि वीर सं० ८८२ में चैत्यवास शुरू हुआ पर वास्तव में यह समय चैत्यवास शुरू
त का नहीं पर चैत्यवास में विकार का समय है । अतः चैत्यवासियों में शिथिलाचार का प्रवेश विक्रम की पांचवीं शताब्दी
तत्र कोरटक्कँ नाम पुर मस्त्युन्नता श्रयम् । द्विजिह्वविमुखा यत्र, विनता नन्इना जनाः ॥ तत्राऽस्ति श्री महावीर चैत्य चैत्यं दधद् दृढम् । कैलास शैलवद्भाति, सर्वाश्रय तयाऽनया ॥ उपाध्यायोऽस्ति तत्र श्री देवचन्द्र इति श्रुतः । विद्वद्वृन्द शिरोरत्न, तमस्ततिहारो जनैः ॥ आरण्यक तपस्ययां, नमस्ययां जगत्यपि । सक्तः शक्तान्त रंगाऽरि- विजये भवतीर भूः ॥ सर्वदेवप्रभु, सर्वदेव सद्ध्यान सिद्धिभृत् । सिद्धक्षेत्रे पिपासुः श्री वारणस्याः समागमत् ॥ वहुश्रुत परिवारो, विश्रान्तस्तत्र वासरान् | कांश्चित प्रबोध्यतं, चैत्यव्ववहार ममोचयत् ॥ स पारमार्थिकं तीव्रं धत्ते द्वादशधा तपः । उपाध्यय स्ततः सूरि, पदे पूज्यः प्रतिष्ठितः ॥
" प्रभाविक चारित्र मानदेव प्रबन्ध पृष्ठ १९१ भावार्थ - भेज समयमां सप्तशतो देश मां कोरंटक नामनु नगरतु अने त्या महावीरनु मंदिर हंतु जेनों कारभार उपाध्याय देवचन्द्रना अधिकारिमां हतो- तेजसमय सर्वदेवसूरि नामना आचार्य विहार करता एक बार कोरंटक तरफ गया अने उपाध्याथ देवचन्दने चैत्यनोवहीवट छोड़ावीने आचाचं पद आपी देवसूरि बनाव्या तेज देवसूरि वृद्ध देवसुरि ना नाम थी प्रसिथया इत्यादि
'५० मुनि श्री कल्याणविजयजी महाराज"