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जब तक चैत्यवासी साधुओं का अचार-विचार ठीक जिनाज्ञानुसार रहा वहाँ तक तो अर्थात् श्राचार्य स्वामि एवं स्कन्दिलाचार्य के समय तक तो प्रायः किसी ने भी चैत्यवास के विषय विरोध का एक शब्द भी उच्चारण नहीं किया था अतः चैत्यवास सकल श्रीसंघ सम्मत था !
हां, दुष्काल की भयंकरता ने जैनश्रमरणों पर अपना प्रभाव डाला और उस विकट समय में जैन साधुओं में व्यक्तिगत कुछ . शिथिलता ने प्रवेश किया भी हो तो यह असम्भव नहीं है और इस विषय का एक प्रमाण प्रभाविकचरित्र में मिलता है कि कोरंटपुर के महावीर मंदिर में एक देवचन्द्रोपाध्याय रहता था और वह चैत्य की व्यवस्था भी करता था, यह कार्य जैनसाधुओं के चार से विरुद्ध था पर उस समय एक सर्वदेवसूरि नामक - सुविहिताचार्य का वहां शुभागमन हुआ और उन्होंने देवचन्द्रोपा ध्याय को हितबोध देकर उग्र विहारी बनाया इत्यादि । इस घटना का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी के आस-पास का कहा जाता है ।
चैत्यवास में शिथिलता के लिये पहिला उदाहरण देवचन्द्रो-पाध्यायका ही मिलता है पर उस समय सुविहितों का शासन सर्वत्र विद्यमान था कि वे कहीं पर थोड़ी बहुत शिथिलता देखते तो उनको जड़ मूल से उखेड़ देते थे । अतः उस समय को सुविहितयुग ही कहा जा सकता है ।
अस्ति सप्तशती दशा, निवेशो धर्मकर्मणाम् । यद्दानंशभिया भेजु स्त, राज शरणं गजाः ॥