Book Title: Khartar Matotpatti
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala

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Page 28
________________ (१४) शब्द जोड़ने में सकुचाते,पर आपके पश्चात जो - बुद्धिसागर सूरि, धनेश्वरसरि, जिनचन्द्रसरि, अभयदेवसूरि, और जिनवल्लभसूरि हुए, वे तो इस गौरवाऽऽस्पद शब्द को कहीं न कहीं जरूर लिखते, पर क्या सब के सब इस सम्मानप्रद शब्द को भूल गये थे ? या कहीं... 'रख दिया था, कि पिछले किसी आचार्य को भी इस विरुद की स्मृति तक नहीं हुई ? वस्तुत: जिनेश्वरसूरि को "खरतरविरूद" मिला ही नहीं था, अभयदेवसूरि तक तो वे सब चन्द्रकुली ही कहलाते थे, जो हमने अभयदेवसरि रचित टोकाओं के प्रमाण दे कर सिद्ध कर दिखाये हैं इतना ही नहीं पर जिनवल्लभसरि को भी खरतरों ने खरतर न कह कर, चन्द्रकुली कहा है । तद्यथाः-- ''सूरिः श्री जिनवल्लभोऽजनि बुधश्चान्द्रेकुले तेजसा । . सम्पूर्णोऽभयदेवेसूरि चरणाऽम्भोजालिलीलीयतः ॥" इस प्रमाण से स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिनवल्लभसरि तक तो वह सब चन्द्रकुल के साधु कहलाते थे । ___एक और भी प्रमाण मिलता है कि जिनवल्लभसूरि के बाद आपके नूतन मत में क्लेश हो कर दो शाखाएँ बन गई थी, एक जिनदत्तसरि की-खरतर शाखा दूसरी जिनशेखरसरि की-रूद्रपाली शाखा, रूद्रपाली शाखा के अन्दर विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में एक जयानन्दसूरि नाम के प्राचार्य हुए उन्होंने आचारदिनकर प्रन्थ पर टीका रची है उसको प्रशस्ति में लिखा है कि: "श्रीमज्जिनेश्वरः सूरिजिनेश्वर मतं ततः । शरद्राका शशिस्पष्ट-समुद्र सदृशं व्यधात् ॥१२॥

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