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(१६) लिखा कि जिनेश्वरसूरि को खतरतर विरुद मिला, और हम उनकी सन्तति श्रेणी में खरतर हैं। __'खरतर' शब्द की उत्पत्ति तो जिनदत्तसूरि से हो गई थी, पर वह अपमान-सूचक होने से किसी ने इस शब्द को अपनाया नहीं था । जिनदत्तसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि हुए, उन्होंने भी किसी स्थान पर ऐसा नहीं लिखा कि जिनेश्वरसूरि या जिनदत्त-. सूरिसे हम खरतर हुए हैं । इतनाही नहीं पर जिनपतिसूरिने (वि. सं० १२२३ में सूरिपद) जिनवल्लभसूरि कृत संघपट्टक ग्रंथ पर जो टीका रची है, उसमें उन्होंने जिनेश्वरसूरि से जिनवल्लभसूरि तक के प्राचार्यों का अत्युक्ति पूर्ण गुण वर्णन करते हुए भी चैत्यवासियों की विजय में उपलब्ध हुआ खरतरविरुदको चेत्यवासियों के खण्डन विषयक ग्रंथ में भी ग्रंथित नहीं किया, अतः यह बात हम दावे के साथ कह सकते हैं कि जिनेश्वरसूरि से जिनवल्लभसूरि तक खरतरशब्द का नाम तक भी नहीं था।
उपरोक्त खरतराचार्यों के प्राचीन ग्रन्थों से सिद्ध होता है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्तसूरि से हुई है, और खरतरमत के सिवाय तपागच्छ, आदि जितने गच्छ हुए हैं, उन सब गच्छवालों की भी यही मान्यता है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि से ही हुई थी। अब आगे चल कर हम सर्वमान्य शिलालेखों का अवलोकन करेंगे कि किस समय से खरतरशब्द का प्रयोग किस आचार्य से हुआ है। इस समय हमारे सामने निम्न लिखित शिलालेख मौजूद हैं
१-श्रीमान् बाबू पूर्णचंदजी नाहर कलकत्ता वालों के संग्रह किये हुए "प्राचीन शिलालेख संग्रह" खण्ड १-२-३ जिनमें