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मिली और न उस मूर्ति का कोई रिक्त स्थान मिला ( शायद वहाँ से मूर्ति उठाली गई हो ) पुनः इस खोज के लिये मैंने यतिवर्य प्रतापरस्नजी नाडोल वाले और मेघराजजी मुनौत फलोदीवालों को बुलाके जाँच कराई, अनन्तर अन्य स्थानों की मूर्तियों की तलाश की पर प्रस्तुत मूर्ति कहीं पर भी नहीं मिली । शिलालेख संग्रह नम्बर २१२० से क्रमशः २१३७ तक की सारी मूर्तिएँ सोलहवीं शताब्दी की हैं। फिर उनके बीच २१२४ नम्बर की मूर्ति वि० सं० ११४७ की कैसे मानी जाय ? क्योंकि न तो इस सम्वत की मूर्ति ही वहाँ है और न उसके लिए कोई स्थान खाली है। जैसलमेर में प्रायः ६००० मूर्तिएँ बताते हैं, पर किसी शिलालेख में बारहवीं सदी में खरतर गच्छ का नाम नहीं है । अतः ११४७ वाला लेख कल्पित हैं फिर भी लेख छपाने वालों ने इतना ध्यान भी नहीं रक्खा कि शिलालेख के समय के साथ जिनशेखरसूरि का अस्तित्व था या नहीं ? ___अस्तु ! अब हम जिनशेखरसूरि का समय देखते हैं तो वह वि० सं० ११४७ तक तो सूरि-प्राचार्य ही नहीं हुए थे, क्योंकि जिनवल्लभसूरि का देहान्त वि० सं० ११६७ में हुआ, तत्पश्चात् उनके पट्टधर सं० ११६९ जिनदत्त और १२८५ मे जिनशेखर श्राचार्य हुए तो फिर ११४७ सम्वत् में जिनशेखरसूरि का अस्तित्व कैसे सिद्ध हो सकता है ? __ खरतर शब्द खास कर जिनदत्तसूरि की प्रकृति के कारण ही पैदा हुआ था, और जिनशेखरसूरि और जिनदत्तसरि के परस्पर में खूब क्लेश चलता था। ऐसी स्थिति में जिलशेखरसरि खरतरशब्द को गच्छ के रूप में मान ले या लिख दे यह सर्वथा