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जिनवल्लभसरि कूर्चपुरीया गच्छ के चैत्यवासी जिनेश्वरसरि के शिष्य थे, उन्होंने चैत्यवास छोड़ कर किसी के पास दीक्षा तक भी नहीं ली थी तथा महावीर का गर्भापहार नामक छटा कल्याणक की उत्सूत्र प्ररूपना कर विधिमाग नामका नया मत निकाला अतः चैत्यवासियों के प्रति उनका द्वेष होना स्वाभाविक ही था । यदि जिनेश्वरसूरि को चैत्यवासियों से शास्त्रार्थ की विजय में "खरतरविरुद" मिला होता, तो जिनवल्लभसूरि चैत्यवासियों के सामने उस विरुद को कभी छिपाये नहींग्खते, किन्तु बड़े गौरव के साथ कहते कि पहिले भी जिनेश्वरसरि ने चैत्यवासियों को पराजित कर "खरतरविरुद" प्राप्त किया था। परन्तु जिनवल्लभसूरि की विद्यमानता में "खरतर" शब्द का नाम तक नहीं था । यदि जिनवल्लभसूरि को यह मालूम भी होता, कि जिनेश्वरसूरि को चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर विजय में "खरतरविरुद" मिला है, तो उन्होंने जो “संघपट्टक", सिद्धान्तविचारसार, आगमवस्तुविचारसार, पिण्ड विशुद्धिप्रकरण,पौषधविधिप्रकरण,प्रतिक्रमणसमाचारी, धर्मशिक्षा प्रश्नोत्तरसार्द्धशतक, शृंगारशतक आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की थी, उनमें कम से कम वह उल्लेख तो जरूर करते कि जिनेश्वरसूरि को खरतरविरुद मिला था पर किसी जगह उन्होंने यह नहीं लिखा है कि जिनेश्वरसूरि को खरतरविरुद मिला, या हम खरतर गच्छ के हैं । इस पर प्रत्येक विचारशील विद्वान् को विचारना चाहिये, कि यदि जिनेश्वरसूरि को वि० स० १०८० में दुर्लभ राजा ने शास्त्रार्थ की विजय के उपलक्ष्य में "खरतर विरुद" दिया होता तो, सम्भव है- कदाचित स्वयं जिनेश्वरसूरि निज आत्मश्लाघा के भय से अपने नाम के साथ खरतर