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युग और परिस्थितियां
हुई कि संपूर्ण भारत अपने पुरातन एवं बोझिल निर्भीक को शतखंडकर इसी में निमज्जित होने लगा।
जैन साहित्यकारों ने भारतीय साहित्य और संस्कृति की अपनी रचनाओं द्वारा अपूर्व सेवा की है । उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत और आधुनिक भारतीय भाषा में श्रेष्ठ रचनाएँ की । इतना ही नहीं, जैन साहित्यकारों ने दर्शन, धर्म और कला के क्षेत्र में भी अपनी कलम चलाई। संक्षेप में इतना ही कहना गर्याप्त होगा कि सभी क्षेत्रों में जैन विद्वानों एवं कवियों की रचनाएँ मिलती हैं। उनमें धर्म और राजनीति विषयक दृष्टिकोण की स्पष्ट छाप है। सौंदर्य, कल्पना और भाषा की दृष्टि से हिन्दी जैन साहित्य अनुपम है ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य एवं साहित्यकारों का न्यूनाधिक रूप में उल्लेख मिलता है, पर भाषा और भाव-धारा की दृष्टि से उनका सही मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका कारण संभवतः यही हो सकता है कि जैन कवियों की रचनाएं धर्म और उपदेश के तत्वों से परिपूर्ण हैं । परन्तु इस दृष्टिकोण से साहित्य रचना करना कोई बुरी बात नहीं है। इस सम्बन्ध में जैन प्राचार्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं :
" ही कवि वास्तव में कवि हैं, वे ही विद्वान् हैं, जिनकी लेखनी से नैतिकता की बात लिखी जाय । वही कविता प्रशंसनीय है जो नैतिकता का बोध कराये । इनके अतिरिक्त जो रचनाएं की जाती हैं वे केवल पाप को ही बढ़ाने वाली है ।"" हिन्दी साहित्य के मध्य युग में भक्ति की धारा सबसे अधिक परिपुष्ट है । उसके सगुण-निर्गुण दो रूप हैं । जैन विचारधारा के कवियों ने भी अनेक भक्तिविषयक रचनाएं की है, परन्तु उनका भावधारा की दृष्टि से अध्ययन नहीं हो सका है । भक्तिकाल के पश्चात् भी भक्ति की धारा का प्रवाह सूखा नहीं । जैन साहित्य में तो भक्ति की धारा प्रजत्र रूप से भक्तिकाल के पश्चात् भी प्रवाहित
१. जैन, डॉ० रवीन्द्र कुमार : कविवर बनारसोवास जीवनी एवं कृतित्व पृ० ७५ प्र० संस्करण १६६६, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन ।
त एष कवयो धीराः, त एव विद्यमरः । येषां धर्म कांगत्वं, भारती प्रतिपद्यते ॥ धर्मानुबंधिनी या स्यात्, कवितर संव शस्यते ।
शेषा: पापाश्रवायव, सुप्रयुक्तापि जायते ॥
आचार्य जिनसेन : महापुराण प्र० पर्व : पद्य क्रमांक ६२-६३ भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन : वि० सं० २०००, १६४४ ई० ।
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