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शिल्प सम्बन्धी विश्लेषण
लोकोक्ति या कलावल एक पूरा वाक्य होता है और अपनी स्वतंत्र सत्ता रखता है । इसका प्रयोग किसी कथन की पूर्ति में उदाहरण स्वरूप किया जाता है। जैसे बनावटी परहेज के लिये कहा कि गुरुवार गुणों से..' हो कथन में अधिक-चमत्कार आ जाता है। ४. अलंकार योजना
अलंकार छद्र का अर्थ है शोभा बढ़ाने वाला । इसकी व्युत्पत्ति 'अलंकरोति इति अलंकार है, जो वस्तु को अल अर्थात् पर्याप्त सुन्दर बना दे, वह अलंकार है। जिस प्रकार भांति-भांति के अलंकार (माभूषण) पहनने से नारी-शरोर की शोभा बहुत बढ़ जाती है, उसी प्रकार कविता में प्रयुक्त होने वाले विशेष शब्द या उक्तियां उसके भाव को अत्यन्त नाकर्षक बना देते हैं। प्राचार्यों ने काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को अलंकार कहा है-'काव्य शोभा करान् धर्मान् अलंकारान् प्रवक्षले हिन्दी के प्रसिद्ध कवि आचार्य केशवदास को तो भूषण के बिना कविता वनिता (नारी) दोनों ही अच्छी नहीं लगती थी, चाहे वे कितनी ही उमस क्यों न हों।
__ "जैन कवियों की कवितामों से प्रमाणित है कि उनमें अलंकारों का प्रयोग तो हुआ है, किन्तु उनको प्रमुखता कभी नहीं दी गई । वे सदैव मूलभाव की अभिव्यक्ति में सहायक भर प्रमाणित हुए हैं । जैन कवियों का अनुप्रासों पर एकाधिकार था।"
हिन्दी के जैन काव्यों में अनेक अर्थालंकारों का प्रयोग हा है। उनमें भी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और श्लेष में सौंदर्य अधिक है । हिन्दी के जैन कवियों की रचनाओं में रूपक अलंकारों के सुन्दर प्रयोग हुए हैं । उन्होंने उपमेय में उपमान का प्रारोप कुशलता से किया है । देखिये
___ 'मन सुना है, और भगवान जिनेन्द्र के पद पिंजड़ा। इस मन रूपी सुए ने संसार के अनेक वृक्षों के कड़वे फलों को तोड़-तोड़ कर चखा है किन्तु उनसे कुछ नहीं हुमा, फिर भी वह निश्चिन्त है । भगवान के चरण रूपी पिंजरे में नहीं बसता । काल रूपी बन-विलाब उसको ताक रहा है। वह भवसर पाते ही दाब लेगा फिर कोई न बचा सकेगा।'
१. जैन डॉ. प्रेम सागर : हिन्दी अन भक्ति काव्य और कवि, प्रथम संस्करण
१६६४, भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन । २. मेरे मन सुमा, जिनवर पीजरे बस, यार लाद वार रे ।।
संसार में बलवृक्ष सेवत, गयो काल अपार रे।।।
विषयफल तिस तोड़ि वाले, कहा देख्यो सार रे ।। sto प्रेमसागर जैन : हिन्वी जैन भक्ति काव्य और कवि, प्रथम संस्करण १९६४, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रकाशन ।