Book Title: Kavivar Budhjan Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
पराक्रमी कोविद मिलपि, सेवाविद विद्वान । ऐसे सोहें भुष घर, नहि प्रतिपास पान ।।२१४।। भूप तुष्ट से करत है, इच्छा पूरन मान । ताकै काज कूलीन हू, करत प्रान कुरवान ।।२१५।। बुद्धि पराक्रम वपु बलि, उद्यम साहस पीर । सका माने देव हू, ऐसा लखिके वीर ॥२६६।। रसना राखि मरजादि तू, भोजन बचन प्रमान । प्रति भोगति प्रति बोलतें, मिहदै होहे हान ॥२१७।। वन वसि फल भस्त्रियो भलो, मीनत भली अजान । भलो नहीं बसिबो तहां, जहां मानझी हान ॥२१८।। जहां कछुवापति नहीं, है आदर वा धाम । धोरे दिन रहिये तहां सुखी रहे परिनाम ।।२१६।। उद्यम करिवी तज दियौ, इन्द्री रोकि नाहि । पंथ चलै भूग्ला रहे, ते दुख पाई हिं 11? समय देखिकं बोलना, नातरि माछी मौन । मैना सुक पकर जगत, बुगला पकर कौन ।। १११।। जाका दुरजन क्या करें, छमा हाथ तरबार । विना तिनाकी भूमिपर, पागि बुझं लाग बार 1॥२२२।। पर उपदेस करन निपुन, ते को लखे अनेक । करै समिक बोलें समिक, जे हजार में एक ।।२२३!। मोधत शास्त्र सुबुधि सहित, कुबुधि बोष लहै न । दीप प्रकास कहा करे, जाके अन्धे नैन ।२२४॥ बिगड़े करे प्रमादतें, बिगड़े निपट अज्ञान । बिगड़े पास फुवास में, सुधरै संग सुजान ।।२२५।। वृद्ध भये नारी मरे, पुत्र हाथ धन होत । वधू हाथ भोजन मिलें, जीन लें पर मौत ।।२२६।। दार धात पखान में, नाहिं विराज देव । देवभाव भायें भला, फलं लभ स्वयमेव ।।२२७३। तिसना दुखको खानि है, नंदनवन संतोष । हिसा बंधकी दायिनी, क्रोध कू जमराज ।।२२।। लोभ पापको बाप है, क्रोध कूर अमराज । माया विषकी बैलरी, मान विषम गिरिराज ॥२२६।।

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