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बुधजन सतसई
हिसकको बैरी जगत, कोई न करें सहाय । बदन चिलति हर कोई अपने भाव बिगाड़ निहवें लागत पाप
बचाय ।। ६६५ ।।
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पर अकाज तो हो न हो, होत जितो पाप चितचासों, जीव भारंभ उद्यमको करत, ताल धोरी जोय ।। ६६७।।
कलंकी आप ॥ ६६६ ॥ सत्ताए होम
ये हिंसा के भेद है, चोर चुगल
विभिचार
क्रोध कपट मद लोभ फुनि, प्रारंभ प्रसत उचार ॥६६६ ॥ चोर डरै निद्रा तर्ज कर है खोट उपाय ।
नरक जाये ।। ६६६ ॥
नृप मारे मारे बनी, परभी छान पर - चुगली करें, उज्जल से तो बुगला सारिखे, पर अकाज लाज धर्म भय ना करें, कामी मैन भानजी नीचकुल, इनके नाहि विवेक ॥१६७१ ।। न श्राप बिगार ।
कुकर एक ।
नीति नीति लखे नहि, लख
पर जाएँ मापना जरी, क्रोष
प्रगतिको भार ।।६७२ ॥ गरबीले मनमाहि |
मारयमें नाहि ।। ६७३ ||
कुल व्योहारकों तज दिया, श्रवसि परेंगे कृप से
मेष बनाय । करि खांय || ६७० ॥
जे
मन में राख फेर ।
तन सूधे सूधे वचन प्रगति ढकी तो क्या हुवा, जारत करत न बेर ।। ६७४ ।। बाहिर चुगि शुक्र उड़ गये, ते ती फिर खुस्पाल | अति लालच भीतर घसे, ते शुरू उल जाल ।। ६७५ || प्रारंभ बिन जीवन नहीं, आरंभमाहि पाप तात प्रति तजि अलपसों को बिना विलाप ।। ६७६ ॥
प्रसत वैन नहि बोलिये, तातें होत बिगार वे असत्य नह सत्य है, जाते हॅ उपकार ||६७७ || क्रोधि लोभी कामी मदी, चार सूझते प्रंध । इनकी संगति छोड़िये, नहि कीजै सनबंध || ६७८ ||
झऊ जुलम जालिम जबर, जलद जंगमैं जान । जक न परं जगमें प्रजस, जूम्रा जहर समान ।। ६७२ ।। जार्को छोबत चतुर नर, डरें करें है न्हान | इसा मासका ग्रासतें, क्यों नहि करो गिलान ।। ६८० ।।
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