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तुलनात्मक अध्ययन
यह है कि विवेक उसका पथ-प्रदर्शन करता है और उसके भावों को अनुप्रारिणत करने वाली विश्वप्रेम पूरफ अहिंसा है। इनके ही समकालीन जैन कवियों में पं. दोलत राम, पन सुखदास, पारसदास, जवाहरलाल, जयचन्द, महाचन्द के नाम तो उल्लेखीय है ही। इन को अतिरिक्त कवि नथमल बिलाला, नयनसुख दास, रूपचंद परिय, जगजीवन, धर्मदास, कुयरपाल, सालिवाहन, नंदक नि, होरान, बुलाकीवास भोर जगतराम नादि भी हैं। इन कवियों की संवाद सौ के लगभग ही जाती है। उन राबका उल्लेख करना यहां सचित नहीं। (२) शुषजन माहित्य में प्रतिपादित प्राध्यात्मिक एवं दार्शनिक तत्व
___वस्तुत: जैनधर्म निवृत्ति-मूलक प्रवृत्ति मार्ग है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें प्रवृत्ति के लिये यत्किंचित् भी स्थान नहीं । वस्तुतः प्रवृत्ति कचित् निवृत्ति की पूरफ है । अशुभ मौर शुभ से निवृत्ति होकर जीव की शुद्ध प्रारम-स्वरूप में प्रति हो, यह इसका अंतिम लक्ष्य हैं । इसका अपना दर्शन है जो प्रात्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करता है । प्राचार्य कुदकुद समग्रसार में पर से भिन्न प्रात्मा की पृथक सत्ता का मनोरम चित्र उपस्थित करते हुए कहते हैं कि
ग्रहो प्रास्मन् ! झन दर्शन स्वरूप तू अपने पापको स्वतंत्र मौर एकाकी अनुभव कर । विश्व में तेरे दायें-बायें, प्रागे-पीछे, ऊपर-नीचे पुद्गल की जो अनंत राशि दिखलाई देती है. उसमें मणमात्र भी तेरा नहीं है । वह सब जड़ है और तू चेतन है यह सब अविनाशी पद का धारी है। उसके साथ सम्बन्ध स्थापित कर तुने खोया ही है, कुछ पाया नहीं । संमार खोने का मार्ग है । प्राप्त करने का मार्ग इससे भिन्न है, यह अध्यात्म का मार्ग है ।
___ 'कविध र बुधजन ने अपने साहित्य में प्रतिपादित किया है कि जन धर्म ने प्रत्येक प्रात्मा की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करके व्यक्ति स्वातंत्र्य के आधार पर उसके बंधन से मुक्त होने का निर्देश किया है। उसने प्रत्येक प्रात्मा को स्वावलंबी बनने का उपाय बताया है । स्वायनं ही सुबी है और परावलंबी दुःखी है | स्वावलंबी बनने के लिये अपने शुद्ध स्वरूप को समझने की आवश्यकता है । प्रात्म-शक्तियों का परिचयज्ञान ही मनुष्य को स्वावलंबी बनाता है । अनादि काल से यह जीव पर का अवलंबन लेता रहा है। एक बार, स्वावलंबन की झलक भी इसने नहीं देखी। हां ! यदि प्रयत्न करे, ग्रात्म-शक्तियों को पहिचान ले तो स्वावलंबी हो सकता है । जब तक यह जीव भौतिकवाद में भटकता रहेगा तब तक उसे सुख-शान्ति और संतोष की प्राप्ति नहीं हो सकती। कधि बुध जन, ग्रन्थों में यही प्रतिपादित करते हैं, कि भोगवादी
१. बाबू कामता प्रसाद : हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, प्रथम
संस्करल, १९७७ पृ०सं० १७, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ।