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कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एव कृतित्व
"हरि जनि बिसरव मोममिता ।
हम नर सषम परम पतिता ॥
तुग्र सन प्रथम उधार न दूसर ।
हम सन जग नहिं पतिता ||
जम के द्वार जवाब कौन देव ।
जखन बुझत, निजगुनकर बतिया' |
- हे शंकर, मैं अत्यन्त नीच और परम पापी मनुष्य हूं । यतः मेरे प्रति अपनी ममता भुला न देना । मुझ पर प्रेमभाव बनाये रखना । प्रापके समान पतित उचारक अन्य नहीं है और जगत् में मेरे समान श्रन्य कोई पापी नहीं है, जब मेरा मरण होगा, तब यमराज के द्वार पर जाकर क्या उत्तर दूंगा ? उस समय आप ही मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं। आप प्रमाण को वरण देने वाले हैं। में आपके चरणों में मस्तक झुकाता हूँ । कृपया झ पर दया कीजिये ।
उपरोक्त पद्य में विद्यापति ने अपने हृदय की उत्कृष्ट भक्ति प्रकट की है । इसे भक्ति की परमावस्था कहते हैं | अपनी हीनता और अपने उपास्य की महानता का वर्णन करना ही श्रेष्ठ भक्ति है। सूर और तुलसी ने भी इसी प्रकार के विनय के पद लिखे हैं । इसी प्रकार का भक्ति का पद कविवर "बुधजन" का देखिये :--
प्रभु पतित पावन में अभावन, चरण आयो शरण जी । यो विश्व श्राप निहार स्वामी, मेटि जामन-मरण जी ।।
तुम ना पिछान्यो, अन्य भान्यो, देव विविध प्रकार जी || या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी ।।
श्रर्थे - हे जिनेन्द्र | श्राप पतितों को पवित्र करने वाले हैं, अतः मैं आपके चरणों की शरण में लाया हूं। प्रभु ! आप अपने बड़प्पन का ध्यान रखते हुए मेरे जन्म-मरण के दुःख दूर कीजिये। मैंने आज तक आपकी पहिचान करने में भूल की है, इस अज्ञानतावश ग्रन्यान्य देवों की उपासना करता रहा इस मिथ्याबुद्धि के कारण स्य की पहिचान नहीं की और भ्रमवश स्वहित में बाधक कारणों को अपना हित कारक माना ।
विद्यापति अपने माराध्य से यह याचना करते हैं कि "कृपया मुझ पर दया कीजिये" परन्तु बुधजन की निष्काम भक्ति में यह भी नहीं है । ये तो केवल इतना ही कहते हैं
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विद्यापति: पधावली संप डॉ० प्रानंदप्रसाद दीक्षित, वि० सं० १६७०, पृ.स ं. १३२-३४, साहित्य प्रकाशन मंदिर, ग्वालियर ।
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