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१५० कविवर बुधजन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अहिंसा, सत्य, अधौर्य महायत पद्य-प्रस पावर का यात स्माग, मन-वय-सन लीना।
झूठ बचन परिहार, गहेनहिं जल बिन दीना ॥ अर्थ-घह (भव्यजीव) मन-वचन-काय से छह काय के जीवों की हिंसा का परित्याग कर अहिंसा महाव्रत का पालन करता है। निदोष बचन बोलने से सत्य महानत का पालन करता है। जल, मिट्टी भादि भी बिना दिये नहीं लेने से मौर्यमहाव्रत का पालन करता है ॥५६॥
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाबत पन-चेतनन्जा-तिय भोग, तज्या गति-गति दुःख कारा ।
अहि-कंचुकि ज्योंजान, वित्त तें परिग्रह डारा ।। ६-५-५७ प्रर्थ-वह (मुनि) चेतन और अचेतन समस्त प्रकार की स्त्रियों के सेवन को चारों गतियों के दुःख का कारण जान, छोड़ देता है अत: ब्रह्मचर्य महादत का पासन करता है।
जिस प्रकार सांप केंचुली त्यागकर सुन्दरता को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार मुनि का मन अन्तरंग एवं बहिरंग परिग्रह का त्याग होने से अत्यन्त निर्मल हो जाता है। यह मुनि का परिग्रह (मूछी) त्याग महायत है ॥५७।।
५ समिति ३ गुप्ति एवं परीषहजय पर-गुप्ति पालने काज, कपट मन-वच-तन नाहीं । पांचों समिति संवारि, परीषह सहि हैं माहीं ।।
६-६-५७ प्रर्ष-अपने स्वरूप में गुप्त रहने हेतु यह जटिलता को रहने ही नहीं देते प्रतः ३ गुप्तियों (मनगुप्ति, वचनगुप्ति कारगुप्ति को पालते हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, भावान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन इन पांच समितियों का पालन (सावधानीपूर्वक) करते हैं।
(प्रकस्मात, माये हुए परीषहों (कष्टों) को समता-भान पूर्वक सहन करते हैं। यह उनका परीषह-जय है ॥५८|| पत्र-छाडि सकल जंजाल, आपकरि पाप "प्राप" में ।
अपने हित को माप, करौ हे शुद्ध जार में ।। मर्थ- वह सांसारिक समस्त प्रकार के विकल्प जालों को जंजाल समझकर छोड़ देता है तथा मात्म-हित के लिये स्वयं प्रात्मा में लीन हो जाता है और ध्यानाग्नि में तपकर गुद्ध हो जाता है ॥५६॥